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________________ ३८० षड्दर्शनसमुच्चये [का. ५७. ६३२०६३९०. तहि केवलान्वयकेवलव्यतिरेकानुमानयोः पञ्चलक्षणत्वासंभवेनागमकत्वप्रसङ्गः । न च तयोरगमकत्वं यौगैरिष्टं, तस्मात्प्रतिबन्धनिश्चायकप्रमाणासंभवेन, अन्यथानुपपत्तेः अनिश्चय एव तत्पुत्रत्वादेरगमकतानिबन्धनमस्तु, न तु त्रैलक्षण्याद्यभावः। ३९१. अथात्र विपक्षेऽसत्त्वं निश्चितं नास्ति, ने हि श्यामत्वाभावे तत्पुत्रत्वेनावश्यं निवर्तनीयमित्यत्र प्रमाणमस्तीति सौगतः। यौगस्तु गर्जति-शाकाद्याहारपरिणामः श्यामत्वेन समव्याप्तिको, न तु तत्पुत्रत्वेनेत्युपाधिसद्भावान्न तत्पुत्रत्वे विपक्षासत्त्वसंभव इति। ३९२. तौ ह्येवं निश्चितान्यथानुपपत्तिमेव शब्दान्तरेण शरणीकुरुत इति सैव हेतोलक्षणमस्तु । अपि च, अस्ति नभश्चन्द्रो जलचन्द्रात्, उदेष्यति श्वः सविता, अद्यतनादित्योदयात् इत्यादिषु पक्षधर्मत्वाभावेऽपि, मन्मातेयमेवंविधस्वरान्यथानुपपत्तेः, सर्व क्षणिकमक्षणिकं वा सत्त्वात्, इत्यादिषु च सपक्षस्याभावेऽपि हेतूनां गमकत्वदर्शनाकि त्रैरूप्यादिना। ६ ३९०. जैन-यदि पाँच रूप होनेसे ही हेतुमें सचाई आती है, तो केवलान्वयी तथा केवल व्यतिरेकी हेतुओंमें पांच रूप न होनेसे हेत्वाभासता होनी चाहिए। केवलान्वयीमें विपक्षव्यावृत्ति तथा केवल व्यतिरेकीमें सपक्षसत्त्व नहीं पाया जाता है। पर नैयायिक केवलान्वयी तथा केवल व्यतिरेकी हेतुओंको हेत्वाभास नहीं मानते, उनके मतमें ये भी सच्चे हो हेतु हैं। चूंकि तत्पुत्रत्व और श्यामत्वके अविनाभावका ग्रहण करनेवाले प्रमाण नहीं मिलते इसलिए उनके अविनाभावका निश्चय नहीं हो पाता। यही अविनाभावका अनिश्चय तत्पुत्रत्व हेतुकी हेत्वाभासतामें कारण है न कि त्रिरूपता या पंचरूपताका अभाव । $३९१. बौद्ध और नैयायिक-बौद्ध कहते हैं कि तत्पुत्रत्व हेतुमें विपक्षासत्त्वका निश्चय नहीं है। यदि इसकी विपक्षव्यावृत्ति निश्चित होती तो श्यामत्वकी निवृत्तिमें तत्पुत्रत्वकी निवृत्ति अवश्य ही होनी चाहिए थी। पर 'श्यामत्वके अभावमें तत्पुत्रत्व अवश्य हो निवृत्त होता है' इसका निश्चय करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है। इस तरह विपक्षासत्त्वका निश्चय न होनेसे तत्पुत्रत्व हेतु हेत्वाभास है । नैयायिक तो इस प्रकार गरजकर कहते हैं कि गर्भिणी माताका हरे पत्तेकी शाक खाना आदि ही गर्भके लड़केके सांवले होनेमें कारण है। इस तरह शाकाद्याहारपरिणामकी ही श्यामत्वके साथ समान व्याप्ति है न कि तत्पुत्रत्वकी । अतः तत्पुत्रत्व हेतुमें शाकाद्याहार परिणाम रूप उपाधि होनेसे यह हेतु विपक्षसे व्यावृत्त नहीं है, व्याप्यत्वासिद्ध है। जो धर्म साध्यका व्यापक हो तथा साधनका अव्यापक उसे उपाधि कहते हैं, जैसे 'यह धूमवाला है क्योंकि अग्निवाला होनेसे' यहां गीले ईंधनका संयोग उपाधि है । गीले इंधनका संयोग साध्यभूत धूएंके साथ सदा रहता है पर साधनभूत अग्निके साथ उसके रहनेका नियम नहीं है । तपे हुए लोहेके गोलेमें अग्निके रहनेपर भी उसमें गीले ईंधनका संयोग नहीं पाया जाता । शाकाद्याहार परिणाम सांवलेपनके साथ तो रहता है पर तत्पुत्रत्वके साथ रहनेका उसका नियम नहीं है। तात्पर्य यह कि अकेले तर श्यामत्वसे व्याप्ति नहीं है किन्तु जब वह शाकाद्याहारपरिणामसे विशिष्ट हो जाता है तभी उसकी सांवलेपनसे व्याप्ति हो सकती है। ६३९२. जैन-विपक्षासत्त्वकी ऐसी व्याख्या करके तो आपने अविनाभावको ही दूसरे शब्दोंमें स्वीकार कर लिया है। आप घूम-फिरकर अविनाभावकी ही शरणमें जा पहुँचे हैं अतः अविनाभावको ही हेतुका प्रधान और निर्दोष लक्षण मानना चाहिए। देखो, 'आकाशमें चन्द्र है क्योंकि जलमें उसका प्रतिबिम्ब पड़ रहा है, जलचन्द्र दिखाई देता है,' 'कल सूर्यका उदय होगा क्योंकि आज सूर्यका उदय हो रहा है' इत्यादि हेतुओंमें पक्षधर्म नहीं पाया जाता, फिर भी सोलह आने सच्चे हैं । 'यह मेरी माता मालूम होती है क्योंकि इस प्रकारकी आवाज अन्यथा आ ही नहीं १. -प्रमाणसंभवेन आ. । २. तर्हि आ., क. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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