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________________ -का० ५७. ३८९] जैनमतम् । ३७९ निजमतानुरागमेव पुष्णन्तो विद्वत्समीपे च कदापि सम्यग्धेतुस्वरूपमपृच्छन्तो निजबुद्धया च तदनवगच्छन्तो भवन्तो यत्साध्यसाधनाय साधनमधुनाभ्यधुः, तत्रापि साध्यसिद्धिनिबन्धनं हेतुः। अतोऽने कान्तव्यवस्थापनार्थ यथावस्थितं वस्तुस्वरूपं दर्शयद्भिः सद्भिरस्माभिः प्रथमतो हेतोरेव स्वरूपं सम्यगनेकान्तरूपं प्रकाश्यते । तावद्दत्तावधाना निरस्तस्वपक्षाभिमानाः क्षणं माध्यस्थ्यं भजन्तः शृण्वन्त भवन्तः। तथाहि-यष्मदपन्यस्तेन हेतना किमन्वयिना स्वसाध्यं साध्येत व्यतिरेकिणा वा, अन्वयव्यतिरेकिणा वा । यदि तावदन्वयिना, तदा तत्पुत्रत्वादेरपि गमकत्वं स्यात्, अन्वयमात्रस्य तत्रापि भावात् । नापि व्यतिरेकिणा; तत्पुत्रत्वादेरेव गमकत्वप्रसङ्गात् । श्यामत्वाभावेऽन्यत्र गौरपक्षे विपक्षे तत्पुत्रत्वादेरभावात् । अन्वयव्यतिरेकिणा चेत्, तदापि तत्पुत्रत्वादित एव साध्यसिद्धिप्रसक्तिः। न चास्य त्रैरूप्यलक्षणयोगिनो हेत्वाभासताशङ्कनीया; अनित्यत्वसाधने कृतकत्वादेरपि तत्प्रसङ्गात् । अस्ति च भवदभिप्रायेण त्रैरूप्यं तत्पुत्रादाविति । ३८९. अथ भवत्वयं दोषो येषां पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षासत्त्वरूपे त्रैरूप्येऽविनाभाव. परिसमाप्तिः, नास्माकं पञ्चलक्षणहेतुवादिनां, अस्माभिरसत्प्रतिपक्षत्वप्रत्यक्षागमाबाधितविषयत्वयोरपि लक्षणयोरभ्युपगमादिति चेत् । हैं +इस तरह आपलोग हेतुके स्वरूपसे सर्वथा अनभिज्ञ रहकर भी स्वपक्ष सिद्धिके लिए यद्वातद्वा हेतुका प्रयोग किया करते हैं। हेतु ही साध्य की सिद्धि में मुख्य कारण होता है। अतः हमलोग अनेकान्तकी सिद्धिके लिए यथावत् वस्तुका स्वरूप दिखाते समय सबसे पहले साध्यके प्रमुख साधक हेतुकी ही अनेकान्तरूपताका प्रतिपादन करते हैं । आप कृपाकर कुछ देरके लिए अपने मतका दुराभमान छोड़कर मध्यस्थ चित्तसे उसे सावधानी पूर्वक सुनिए। आपके हेत अन्वयो होनेके कारण साध्यके साधक हैं, या व्यतिरेकी होनेके कारण, अथवा अन्वय और व्यतिरेक दोनों व्याप्तियोंके मिलनेके कारण ? यदि साध्य और साधनका दृष्टान्तमें सद्भाव रहनेके कारण ही वे अन्वयो होकर सच्चे हैं, साध्यके साधक हैं; तो 'गर्भ में रहनेवाला लड़का सांवला है क्योंकि वह उसका लड़का है' इस अनुमानमें 'तत्पुत्रत्व' हेतु भी सच्चा हो जाना चाहिए; क्योंकि उसीके चार काले लड़कोंमें तत्पुत्रत्व और श्यामत्वका अन्वय पाया हो जाता है। यदि किसी व्यतिरेक दृष्टान्तमें साध्याभाव होनेपर साधनाभाव रूप व्यतिरेक व्याप्तिसे ही हेतु सच्चा हो; तो गोरे चैत्रके लड़कोंमें श्यामत्वके अभावमें तत्पुत्रत्वका अभाव बराबर देखा जाता है, अतः तत्पुत्रत्व हेतुको प्रामाणिक मानना चाहिए। यदि अन्वय और व्यतिरेक दोनोंके मिलनेपर हेतु सच्चा होता है। तो भी तत्पुत्रत्व हेतुमें अन्वय और व्यतिरेक दोनोंका सद्भाव होनेसे प्रामाणिकता तथा साध्यसाधकता होनी चाहिए। यह तत्पुत्रत्व हेतु पक्षमें रहता है सपक्षमें भी इसका सत्त्व है तथा विपक्षसे व्यावृत्त भी है इस तरह जब इसमें डटकर त्रिरूपता पायी जाती है तब इसे हेत्वाभास तो आप (बौद्ध) कह ही नहीं सकते । यदि त्रिरूपता होनेपर भी तत्पुत्रत्वको हेत्वाभास माना जाता है; तो 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक है' इस कृतकत्व हेतुको भी हेत्वाभास मानना चाहिए। आपके त्रैरूप्यकी व्याख्याके अनुसार तत्पुत्रत्व हेतुमें पूरी-पूरी डटकर त्रिरूपता पायी जाती है। ३८९. नैयायिक-तत्पुत्रत्व हेतुमें सचाईका दोष तो उन बौद्धोंके मतमें आ सकता है जो पक्षधर्मत्व सपक्षसत्त्व तथा विपक्षव्यावृत्ति इन तीन रूपों तक ही अविनाभावको सीमित रखते हैं, इसी में उनका अविनाभाव परिपूर्ण हो जाता है। पर हमलोग तो पांचों रूपोंमें अविनाभावकी पूर्णता मानते हैं अतः तत्पुत्रत्व हेतुवाला दोष हमारे मतमें नहीं आ सकता। हम उक्त तीन रूपोंके सिवाय प्रत्यक्ष और आगमसे हेतुका बाधित न होना अर्थात् अबाधित विषयत्व तथा विपरीत साध्यको सिद्ध करनेवाले किसी प्रतिपक्षी हेतुका न होना अर्थात् असत्प्रतिपक्षत्वको भी हेतुका स्वरूप मानते हैं। हमारे मतसे हेतुका अविनाभाव पांच रूपोंमें पूर्ण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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