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________________ -का० ५७. ६३९४ ] जैनमतम्। ३८१ $ ३९३. निश्चितान्यथानुपपत्तिरेवैकं लिङ्गलक्षणमणं तत्त्वमेतदेव, प्रपञ्चः पुनरयमिति चेत्, तहि सौगतेनानाबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं ज्ञातत्वं च योगेन च ज्ञातत्वं लक्षणमाख्यानीयम् । ३९४. अर्थ विपक्षानिश्चितन्यावृत्तिमात्रेणाबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं च ज्ञापकहेत्वधिकाराज्ज्ञातत्वं च लब्धमेवेति चेत्. तहि गमकहेत्वधिकारावशेषमपि लब्धमेवेति किं शेषेणापि प्रपञ्चेनेति । अत एव नान्वयमात्राद्धेतुर्गमकः, अपित्वाक्षिप्तव्यतिरेकादन्वयविशेषात् । नापि व्यतिरेकमात्रात्, किन्वङ्गीकृतान्वयाद्वयतिरेकविशेषात् । न चापि परस्पराननुविद्धतदुभयमात्रात्, अपि तु परस्परस्वरूपाजहवृत्तान्वयव्यतिरेकत्वात्, निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणस्य हि हेतोर्यथाप्रदर्शितान्वयव्यतिरेकरूपत्वात् । न च जैनानां हेतोरेकलक्षणताभिधानमनेकान्तस्य विघातकमिति वक्तव्यं, प्रयोगनियम एवैकलक्षणो हेतुरित्यभिधानात्, न तु स्वभावनियमे, नियतैकस्वभावस्य शशशृङ्गादेरिव निःस्वभावत्वात्, इति कथं न हेतोरनेकान्तात्मकता।। सकती थी' 'सब पदार्थ क्षणिक या नित्य हैं क्योंकि वे सत् हैं' इत्यादि हेतुओंमें सपक्षसत्त्व न रहने पर भी पूरी-पूरी सचाई है। ये सच्चे हेतु माने जाते हैं। अतः अविनाभावको ही हेतुका एकमात्र असाधारण लक्षण मानना चाहिए -- त्रैरूप्य आदि दूषित लक्षणोंका मानना निरर्थक ही है। ३२३-बौद्धादि-भाई, तत्त्वकी बात यही है कि-निश्चित अविनाभावको ही एकमात्र हेतुका मुख्यतया तथा निर्दोष लक्षण माना जाय । पर उसी अविनाभावके प्रपंचके लिए विस्तारसे समझने और समझानेके लिए त्रैरूप और पांचरूप्य मान लिये जाते हैं। जैन-यदि विस्तार और स्पष्टता ही इष्ट है, तो बौद्धोंको चाहिए कि वे अबाधितविषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व और ज्ञातत्वको भी हेतुका स्वरूप माने तथा नैयायिक ज्ञातत्व नामके रूपको भी स्वीकार कर षड्प हेतु मानें । हेतुका 'ज्ञातत्व' रूप तो नितान्त आवश्यक है; क्योंकि जब तक हेतु ज्ञात नहीं होता तब तक अनुमिति हो ही नहीं सकती। ३९४. बौद्धादि-हेतुकी विपक्षसे निश्चित व्यावृत्तिका ज्ञान होनेपर अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व अपने ही आप फलित हो जाते हैं तथा ज्ञापक हेतका प्रकरण होनेसे हेतको ज्ञात तो होना ही चाहिए, क्योंकि अज्ञात पदार्थ ज्ञापक नहीं होता। इस तरह त्रैरूप्यसे ही अन्य अबाधितविषयत्व आदि अर्थात् ही फलित हो जाते हैं इसलिए उनके पृथक् कथन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। जैन-तब गमक हेतुका अधिकार होनेसे केवल अविनाभावके कथनसे ही अन्य सब पक्षधर्मत्वादि अपने आप ही फलित हो जायेंगे, उनका भी कथन निरर्थक है। अतः एकमात्र अविनाभावको ही हेतुका लक्षण मानना चाहिए। अविनाभावी हो हेतु साध्यका गमक हो सकता है । अतः त्रैरूप्य आदिका आग्रह छोड़कर उसे ही मानना चाहिए। इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो कि हेतु मात्र अन्वयके बलपर गमक नहीं हो सकता, किन्तु उसमें व्यतिरेक-विपक्षव्यावृत्तिका बल अवश्य होना चाहिए। विपक्षव्यावृत्ति और व्यतिरेकका सीधा अर्थ अविनाभाव है। अतः अविनाभाव विशिष्ट अन्वयसे ही हेतु साध्यका वस्तुतः साधक हो सकता है। इसी तरह केवल व्यतिरेकसे भी हेतुमें गमकता नहीं है किन्तु गमकता तो अन्वयकी अपेक्षा रखनेवाले ही व्यतिरेकसे होती है । परस्पर निरपेक्ष अन्वय और व्यतिरेक भी हेतुकी गमकतामें कारण नहीं हो सकते। गमकताके लिए तो अन्वय और व्यतिरेकको परस्पर सापेक्ष होकर तादात्म्य रखना चाहिए। अविनाभावी हेतुमें अन्वय और व्यतिरेक परस्पर सापेक्ष हैं तथा तादात्म्य रखते हैं। साध्यके अभावमें नहीं होना साध्यके होनेपर ही होनेसे सम्बद्ध है। इस तरह यदि जैन लोग एकमात्र १. अथ विवक्षा-आ., क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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