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________________ ३७६ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५७.६३८५६३८५. मीमांसकास्तु स्वयमेव प्रकारान्तरेणैकानेकाद्यनेकान्तं प्रतिपद्यमानास्तत्प्रतिपत्तये सर्वथा पर्यनुयोगं नाहन्ति अथवा शब्दस्य तत्संबन्धस्य च नित्यत्वैकान्तं प्रति तेऽप्येवं पर्यनुयोज्याःत्रिकालशून्यकार्यरूपार्थविषयविज्ञानोत्पादिका नोदनेति मीमांसकाभ्युपगमः। अत्र कार्यताया कालशून्यत्वेऽभावप्रमाणस्य विषयता स्यात्, अर्थत्वे तु प्रत्यक्षादिविषयता भवेत्, उभयरूपतायां पुनर्नोदनाया विषयतेति। ३८६. अथ बौद्धादिसर्वदर्शनाभीष्टा दृष्टान्ता युक्तयश्चानेकान्तसिद्धये समाख्यायन्तेबौद्धादिसर्वदर्शनानि संशयज्ञानमेकमुल्लेखद्वयात्मकं प्रतिजानानानि नानेकान्तं प्रतिक्षिपन्ति । तथा स्वपक्षसाधकं परपक्षोच्छेदकं च विरुद्धधर्माध्यस्तमनुमानं मन्यमानाः परेऽनेकान्तं कथं पराकुयुः। मयूराण्डरसे नीलादयः सर्वेऽपि वर्णा नैकरूपा नाप्यनेकरूपाः, कित्वेकानेकरूपा यथावस्थिताः, तथैकानेकानेकान्तोऽपि । तदुक्तं नामस्थापनाद्यनेकान्तमाश्रित्य "मयूराण्डरसे यद्वद्वर्णा नीलादयः स्थिताः। सर्वेऽप्यन्योन्यसंमिश्रास्तद्वन्नामादयो घटे ॥१॥" अपेक्षा नष्टानष्ट प्रवृत्ताप्रवृत्त आदि विरुद्ध धर्मोंवाली माननेवाले सांख्य कैसे अपनेको अनेकान्तका विरोधी कह सकते हैं। उनका यह मानना ही अनेकान्तका अप्रत्यक्ष रूपसे समर्थन करना है। ३८५. मीमांसकोंमें कुमारिल आदि तो स्वयं ही सामान्य और विशेष में कथंचित्तादात्म्य धर्म और धर्मीमें भेदाभेद तथा वस्तुको उत्पादादित्रयात्मक स्वीकार करके अनेकान्तको मानते ही हैं। अतः उनसे इस विषयको विशेषरूपसे पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है। हां, वे शब्द और अर्थका नित्य सम्बन्ध मानते हैं। वे चोदना-श्रुतिवाक्यको कार्यरूप अर्थमें ही प्रमाण मानते हैं। इस कार्यको वे त्रिकालशून्य कहते हैं। उनका तात्पर्य है कि वेदवाक्य त्रिकालशून्य शुद्ध कार्यरूप अर्थको ही विषय करते हैं । इसी विषयमें उनसे पूछना है कि-यदि कार्यरूपता त्रिकालशून्य है-किसी भी कालमें अपनी सत्ता नहीं रखती, तब वह अभाव प्रमाणका ही विषय हो जायेगी, उसे आगमगम्य मानना अयुक्त है। यदि वह अर्थरूप है; तो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे ही उसका परिज्ञान हो जायेगा। अतः कार्यको त्रिकालशून्य भी मानना होगा तथा अर्थरूप भी, तभी वह वेदवाक्यका विषय हो सकता है। इसलिए जब अनेकान्तके माने बिना वेदवाक्यका विषय ही सिद्ध नहीं हो सकता तब उसे अगत्या मान ही लेना चाहिए। ३८६. अब अनेकान्तको सिद्धि के लिए बौद्धादि दर्शनोंमें दिये गये कुछ दृष्टान्त तथा युक्तियाँ उपस्थित करते हैं-बौद्ध आदि सभी दार्शनिक जब एक ही संशय ज्ञानमें परस्पर विरोधी दो आकारोंका प्रतिभास तथा उल्लेख मानते हैं तब वे अनेकान्तका खण्डन कैसे कर सकते हैं? सभी दार्शनिक अपनी यक्ति तथा प्रमाणोंको स्वपक्षका साधक तथा परपक्षका खण्डन करनेवाला मानते हैं । अतः जब वे एक ही हेतुमें स्वपक्ष-साधकता तथा परपक्ष-असाधकता-दूषकता रूप विरुद्ध धर्म मानते ही हैं तब वे अनेकान्तका खण्डन किस मुंहसे करेंगे। मोरके अण्डे के तरल पदार्थमें नीले-पीले आदि अनेक रंग पाये जाते हैं। उन रंगोंको न तो सर्वथा एकरूप ही कहा जा सकता है और न स्वतन्त्र भावसे अनेकरूप ही। अत: जिस प्रकार मोरके अण्डे में नीलादि सभी रंग कथं चत् एकानेक रूपसे तादात्म्य भावसे रहते हैं उसी तरह वस्तुमें एक-अनेक नित्य-अनित्य आदि अनेक धर्म भी कथंचित् तादात्म्य रूपसे ही रहते हैं, वे न तो सर्वथा भिन्न ही हैं और न सर्वथा अभिन्न हो । एक ही वस्तुमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपोंसे व्यवहार होता है । इन्हीं नाम-स्थापना रूपसे अनेकान्तका समर्थन करते हुए लिखा है कि-"जिस तरह मोरके अण्डे में नीलादि अनेक रंग परस्पर मिश्रित होकर कथंचित् तादात्म्य रूपसे रहते हैं उसी १. -दि दर्श-म. २ । २. -जानन्ति नाने-भ. २ । ३. किन्त्वनेकान्तरूपा भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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