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________________ -का० ५७. ६३८४ ] जनमतम् । ३७५ दस्याप्येकान्तेनानभ्युपगमात् । कि तमुन्योन्याविश्लिष्टस्वरूपो विवक्षया संदर्शनीयभेदोऽवयवेष्ववयव्यभ्युपगम्यते, 'अबाधितप्रतिभासेषु सर्वत्रावयवावयविनां मिथो भिन्नाभिन्नतया प्रतिभासनात्, अन्यथा प्रतिभासमानानामन्यथापरिकल्पने ब्रह्माद्वैतशून्यवादादेरपि कल्पनाप्रसङ्गात् । एवं संयोगिषु संयोगः, समवायिषु समवाय; गुणिषु गुणः, व्यक्तिषु सामान्यं चात्यन्तं भिन्नान्यभ्युपगम्यमानानि तेषु वर्तनचिन्तायां सामस्त्यैकदेशविकल्पाभ्यां दूषणीयानि । तदेवमेकान्तभेदेऽनेकदूषणोपनिपातादनेकान्ते च दूषणानुत्थानादनेकान्ताभ्युपगमात् न मोक्ष इति । अतो वरमादावेव मत्सरितां विहायानेकान्ताभ्युपगमः किं भेदैकान्तकल्पनया अस्थान एवात्मना परिक्लेशितेनेति । $३८४. सांख्यः सत्त्वरजस्तमोभिरन्योन्यं विरुद्धैर्गुणैग्रंथितं प्रधानमभिदधान एकस्याः प्रकृतेः संसारावस्थामोक्षसमययोः प्रवर्तननिवर्तनधर्मी विरुद्धौ स्वीकुर्वाणश्च कथं स्वस्यानेकान्तमतवैमुख्यमा ख्यातुमीशः स्यात् । फिर अवयवकी । अभेद पक्षमें दोकी सत्ता हो ही नहीं सकती। इस प्रकारका सर्वथा अभेद जैन लोग नहीं मानते। वे तो अवयव रूप ही अवयवी मानते हैं, हां भेदकी विवक्षा होनेपर 'यह अवयवी है, ये अवयव हैं। इस प्रकारका भेद उनमें दिखाया जा सकता है। ताने और बाने रूपसे परस्पर सम्बद्ध तन्तुओंको छोड़कर उनसे भिन्न पट नामका अतिरिक्त अवयवी है ही नहीं। सब जगह अवयव और अवयवीका कथंचिद् भेदाभेद ही निर्बाध प्रतीतिका विषय होता है। हम चाहें कि तन्तओंसे अतिरिक्त पट मिल जाय, तो नहीं मिल सकता. इसलिए उनमें अभेद है। पटकी पट संज्ञा, तन्तुको तन्तु संज्ञा, इत्यादि संज्ञा भेद, लक्षण भेद, परिमाण भेद आदिकी दृष्टिसे उनमें भेद है। इस तरह अवयवसे कथंचिद् भिन्न-भिन्न अवयवीका प्रतिभास होनेपर भी यदि उनमें सर्वथा अप्रतिभासमान अत्यन्त भेद माना जायेगा; तो फिर अप्रतिभासमान ब्रह्माद्वैत या शून्याद्वैत आदिको भी मान लेना चहिए । इसी तरह दही और घड़ा आदिमें संयोग सम्बन्ध माना जाता है। दो द्रव्योंमें संयोग सम्बन्ध होता है, बशर्ते कि उनमें अवयव-अवयविभाव न हो। गुण और गुणी, क्रिया और क्रियावान्, सामान्य और सामान्यवान्, विशेष और नित्यद्रव्य तथा अवयव और अवयवीमें समवाय सम्बन्ध होता है । अतः संयोगकी अपने संयोगियोंमें, समवायकी समवायियोंमें, गुणकी गुणीमें, सामान्यकी अपनी व्यक्तियोंमें वृत्ति-रहना एकदेशसे होगा या सर्वदेशसे इत्यादि दूषण संयोग और समवाय आदिका संयोगो और समवायो आदिसे सर्वथा भेद मानने में बराबर लागू होते रहेंगे। इस तरह सर्वथा भेद मानाने में अनेकों दूषण आते हैं और उनका परिहार करना भी असम्भव है पर अनेकान्तवादमें किसी भी दूषणको गन्ध तक नहीं आती, वह सर्वथा निर्दोष है । इसलिए आखिरमें जब दूषणोंका परिहार करनेके लिए और वस्तुकी व्यवस्था करनेके लिए अनेकान्तके माने बिना चारा ही नहीं है तब इससे अच्छा तो यही है कि ईर्ष्या तथा दुराग्रहको छोडकर पहले ही उसे स्वीकार कर लिया जाय। प्रतीतिसे बाधित सर्वथा भेदको मानकर आत्माको व्यर्थ ही क्लेशमें डालना कहांकी बुद्धिमानी है। ३८४. सांख्य एक ही प्रधानको त्रिगुणात्मक मानते हैं। यह प्रधान परस्पर विरोधी सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंसे गूंथा गया है-त्रयात्मक है । एक ही प्रकृतिमें संसारी जीवोंकी अपेक्षा उन्हें सुख दुःखादि उत्पन्न करनेके लिए प्रवृत्त्यात्मक स्वभाव तथा मुक्त जीवोंकी अपेक्षा निवृत्तिरूप स्वभाव माना जाता है । वही प्रकृति संसारियोंके प्रति तो प्रवृत्ताधिकार-सत्ता रखनेवाली और मक्तजीवोंके प्रति निवत्ताधिकार-नष्ट हो चकी है. वह उनमें कोई भी सख-दःखादि उत्पन्न नहीं कर सकती। इस तरह एक ही प्रधानको त्रिगुणात्मक तथा एक ही प्रकृतिको भिन्न जीवोंकी १. अथेन तत्प्रतिभासेषु सर्वत्रापि च यथावयविनां मिथो भिन्नतया प्रति-म. २ । २. भेदेनैकदू-म.२ । ३. -कान्तानभ्युप-मु-अशुद्धमेतत् पाठान्तरम् । ४. -कान्तोऽभ्युपगतः किं म. १, प. १, २, आ., क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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