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________________ ३७४ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५७.९३८३ प्रत्ययो येभ्यो भवति तेऽन्त्या विशेषा, इत्यत्र तुल्या कृतिगुणक्रियत्वं विलक्षणत्वं चोभयं प्रत्याधारमुच्यमानं स्याद्वादमेव साधयेत् । एवं नैयायिकवैशेषिका आत्मनानेकान्तमुररीकृत्यापि तत्प्रतिक्षेपायोद्यच्छन्तः सतां कथं नोपहास्यतां यान्ति । ६ ३८३. कि च, अनेकान्ताभ्युपगमे सत्येष गुणः परस्परविभक्तेष्ववयवावयव्यादिषु मिथो वर्तनचिन्तायां यदूषणजालमुपनिपतति तदपि परिहृतं भवति । तथाहि - अवयवानामवयविनश्च मिथोऽत्यन्तं भेदोऽभ्युपगम्यते नैयायिकादिभिर्न पुनः कथंचित् । ततः पर्यनुयोगमर्हन्ति ते । अवयवे - raarat वर्तमानः किमेकदेशेन वर्तते कि वा सामस्त्येन । यद्येकदेशेन तदयुक्तम्; अवयविनो निरवयवत्वाभ्युपगमात् । सावयवत्वेऽपि तेभ्योऽवयवी यद्यभिन्नः, ततोऽनेकान्तापत्तिः, एकस्य निरंशस्याने कावयवत्व प्राप्तेः । अथ तेभ्यो भिन्नोऽवयवी; तर्हि तेषु स कथं वर्तत इति वाच्यम् । एकदेशेन, सामस्त्येन वा । एकदेशपक्षे पुनस्तदेवावर्तत इत्यनवस्था । अथ सामरत्येन तेषु स वर्तते, तदप्यसाधीयः प्रत्यवयवमवयविनः परिसमाप्ततयावयविबहुत्वप्रसङ्गात् । ततश्च तेभ्यो भिन्नोऽवयवीन विकल्पभाग् भवति । नन्वभेदपक्षेऽप्यवयविमात्रमवयवमात्रं वा स्यादिति चेत्; न; अभेहुए लिखा है कि तुल्य आकार समानगुण तथा एक जैसी क्रियावाले समपरमाणुओं में, मुक्त जवोंकी निर्गुण आत्माओं में मुक्तजीवोंसे छूटे हुए मनमें जिसके कारण योगियोंको 'यह इससे विलक्षण है, यह इससे विलक्षण है' ऐसा विलक्षण प्रत्यय होता है उन्हें अन्त्य विशेष कहते हैं । इस लक्षण में दो बातें बतायी हैं कि परमाणु या मुक्त आत्मा आदि आकृति गुण क्रिया आदिकी अपेक्षा समान हैं तथा इनमें विलक्षण प्रत्यय भी होता है । इस तरह हर एक परमाणु में समानरूपता तथा विलक्षणताका होना भी स्याद्वादको ही सिद्ध करता है। इस तरह नैयायिक वैशेषिकोंने अनेकों जगह अनेकान्तको स्वयं स्वीकार किया है फिर भी जब ये अनेकान्तका खण्डन करनेके लिए तैयार होते हैं तब इनकी बुद्धिपर समझदारों को हँसी ही आती है । उस समय इनका स्ववचन विरोध ही इनकी बुद्धिका दिवाला निकाल देता है । $ ३८३. अनेकान्तवादको मानने से सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि इन नैयायिक और वैशेषिकोंके द्वारा अवयवीकी वृत्ति माननेमें बोद्ध जो अनेकों दूषण देते हैं उनका परिहार सहज ही हो जायेगा । केवल अवयवीकी ही बात नहीं है सत्तासामान्य आदिको भी अपनी व्यक्तियों में वृत्ति माननेपर बौद्ध इसी प्रकारके अनेक दूषण देते हैं, उनका भी परिहार हो जायेगा । नैयायिक आदि अवयवीका अवयवोंसे अत्यन्त भेद मानते हैं कथंचिद् भेद तो मानते ही नहीं है, अतः बौद्ध उन्हें इस प्रकार के दूषण देते हैं-अवयवी अपने अवयवों में एकदेशसे रहता है या सर्वदेश से ? अवयवीको तो निरवयव माना है अतः एकदेशसे रहना तो नहीं बन सकता। यदि अवयवीके अनेक प्रदेश माने जाय; तो वे प्रदेश उससे अभिन्न हैं या भिन्न ? यदि अपने अनेक प्रदेशोंसे अवयवी अभिन्न है; तो एक ही अवयवी अनेक प्रदेशात्मक होनेसे अनेकान्तरूप ही हो गया; क्योंकि एक निरंश अवयवीको अनेकप्रदेशी मानना पड़ा। यदि अवयवी अपने अनेक प्रदेशोंसे भिन्न है; तो वह उनमें एकदेशसे रहता है या सर्वदेश से ? एकदेशसे वृत्ति मानना तो उचित नहीं है; क्योंकि अवयवीके निरंश होनेसे उसके प्रदेश ही नहीं है । प्रदेश माने जाँय तो उनमें वह सर्वदेश से रहेगा या एकदेशसे इत्यादि प्रश्न पुनः चालू हो जायेंगे और इस तरह अनवस्था नामका दूषण होगा । यदि अवयवी अपने प्रत्येक अवयवमें पूरे-पूरे रूपसे - सर्वदेश रहता है; तो जितने अवयव हैं उतने ही स्वतन्त्र अवयवी हो जायेंगे, क्योंकि हरएक अवयव में अवयवी अपने पूर्णरूपसे रहता है । इस तरह अवयवोंसे भिन्न अवयवीका अपने अवयवों में रहना ही कठिन है । सर्वथा अभेद माननेपर या तो अवयवीकी ही सत्ता रह सकती है या १. - क्रियात्वं आ. क. । २. प्राप्तिः भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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