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________________ -का० ५७ § ३८२ ] जैनमतम् । ३७३ च, सात्त्विकस्वभावाः परस्परं विरुद्धाः । एकस्यामलकस्य कुवलय बिल्वाद्यपेक्षया महत्त्वमणुत्वं च विरुद्धे । एवमिक्षोः समिद्वंशापेक्षया हस्वत्वदीर्घत्वे अपि । देवदत्तादेः स्वपितृसुतापेक्षया परत्वापरत्वे अपि । अपरं सामान्यं नाम्ना सामान्यविशेष इत्युच्यते । सामान्यविशेषश्च द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वलक्षणः । द्रव्यत्वं हि नवसु द्रव्येषु वर्तमानत्वात्सामान्यं, गुणकर्मभ्यो व्यावृत्तत्वाद्विशेषः । एवं गुणत्वकत्वयोरपि सामान्यविशेषता 'विभाव्या । ततश्च सामान्यं च तद्विशेषश्चेति सामान्यविशेषः । तस्यैकस्य सामान्यता विशेषता च विरुद्धे । एकस्यैव हेतोः पञ्च रूपाणि संप्रतिपद्यन्ते । एकस्यैव पृथिवीपरमाणोः सत्तायोगात्सत्वं द्रव्यत्वयोगादृद्रव्यत्वं पृथिवीत्वयोगात्पृथिवीत्वं, परमात्वयोगात्परमाणुत्वं अन्त्याद्विशेषात्परमाणुभ्यो भिन्नत्वं चेच्छतां परमाणोस्तस्य सामान्यविशेषात्मकता बलादापतति, सत्त्वादीनां परमाणुतो भिन्नतायां तस्यासत्वाद्रव्यत्वापृथिवीत्वाद्यापत्तेः। एवं देवदत्तात्मनः सत्त्वं द्रव्यत्वम्; आत्मत्वयोगादात्मत्वम्, अन्त्याद्विशेषोद्यज्ञदत्ताद्यात्मभ्यो भिन्नतां चेच्छतां तस्यात्मनः सामान्य विशेषरूपतावश्यं स्यात् । एवमाकाशादिष्वपि सा भाव्या । fifty कृतिगुणक्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्ममनःसु च प्रत्याधारं विलक्षणोऽयमिति रूप स्वभाव तथा अनेक सात्त्विक भावोंका मानना स्पष्ट ही परस्पर विरुद्ध है । एक ही ईश्वरको पृथिवी जल अग्नि वायु आकाश दिशा काल रूप अष्टमूर्ति मानना अनेकान्तवादका ही रूप है । एक ही आँवले कमलकी अपेक्षा महत्त्व - बड़ापन तथा बेलकी अपेक्षा अणुत्व - छोटापन मानना भी अनेकान्तात्मकता का ही सम्पोषण है । इसी तरह वे एक ही ईखको किसी छोटी यज्ञके काम आनेवाली लकड़ीकी अपेक्षा लम्बा तथा बाँसकी अपेक्षा छोटा मानते हैं । देवदत्तको अपने पिता की अपेक्षा लहुरा तथा अपने लड़केकी अपेक्षा जेठा मानते हैं । अपर सामान्यको सामान्य विशेष कहते हैं, अर्थात् अपर सामान्य एक विशेष प्रकारका सामान्य है । द्रव्यत्व गुणत्व और कर्मत्व सत्ताकी अपेक्षा अपर सामान्य सामान्य विशेष हैं। जो द्रव्यत्व पृथिवी आदि नो द्रव्योंमें अनुगत होने से सामान्यरूप है वही गुण कर्म आदिमें न पाये जानेके कारण इनसे व्यावृत्त होनेके कारण विशेष रूप है। इसी तरह गुणत्व और कर्मत्व भी अपनी रूपादि गुण और उत्क्षेपणादि कर्म व्यक्तियों में अनुगत होने से सामान्यरूप हैं तथा वे ही द्रव्य आदिसे व्यावृत्त होने के कारण विशेषरूप हैं । चूँकि ये सामान्यरूप भी हैं तथा विशेषरूप भी हैं अत: इन्हें सामान्य विशेष कहते हैं । इस तरह एक हो पदार्थ में परस्पर विरुद्ध सामान्य रूप तथा विशेषरूप होनेसे वह अनेकान्तका ही समर्थक सिद्ध होता है । वे एक ही हेतुके पक्षधर्मत्व सपक्षसत्त्व आदि पांच रूप मानते हैं । एक ही पृथिवीके परमाणु में सत्ता के सम्बन्धसे सत्त्व, द्रव्यत्व के सम्बन्धसे द्रव्यत्व, पृथिवीत्व के समवायसे पृथिवीत्व, परमाणुत्वके योग से परमाणुत्व आदि अनेक सामान्य धर्मं पाये जाते हैं । यही परमाणु नित्यद्रव्य में रहनेवाले विशेष पदार्थ से तथा अन्य परमाणुओंसे व्यावृत्त होनेके कारण विशेषरूप भी हैं । इस तरह एक ही परमाणु में सामान्यरूपता तथा विशेषरूपता पायी जाती है जिससे अनेकान्तात्मकताकी पूरी-पूरी सिद्धि हो जाती है। यदि सत्त्व द्रव्यत्व पृथिवीत्व आदिसे परमाणुओंका भेद माना जायेगा तो वे असत् अद्रव्य तथा अपृथिवी रूप हो जायेंगे। इसी तरह एक ही देवदत्तकी आत्मा में सत्त्व, द्रव्यत्व, आत्मत्व के समवायसे आत्मत्व आदि अनेक सामान्यधर्म पाये जाते हैं, यही आत्मा अन्त्य जगत् के विनाश तथा आरम्भरूप आखिरी अवस्थाओं में शेष रहनेवाले नित्यद्रव्यों में रहनेवाले विशेष पदार्थ से तथा यज्ञदत्त आदिकी आत्माओंसे व्यावृत्त - भिन्न भी होती है अतः इसमें विशेषरूपता भी है । इस तरह एक ही आत्मा में सामान्यरूपता और विशेषरूपता पायो ही जाती है । इसी तरह आकाश काल आदिमें भी सत्ता और द्रव्यत्वकी अपेक्षा सामान्यरूपता तथा अन्य द्रव्य गुण आदि से भिन्न होने के कारण विशेषरूपता समझ लेनी चाहिए। विशेषपदार्थका लक्षण करते १. विभाव्यते ततश्च म. १, २, प. १, २ । २. -षाद्देवदत्ताद्यात्म- म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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