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________________ ३७२ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५७. ६ ३८२पूर्वोत्तरापेक्षया यथार्हमवगन्तव्या। एकमेव चित्रपटादेरवयविनो रूपं विचित्राकारमभ्युपयन्ति । न च विरोधमाचक्षते । तदुक्तं कन्दल्याम् : "विरोधादेकमनेकस्वभावमयक्तमिति चेत् न तथा च प्रावादकप्रवादः - एकं चेत्तत्कथं चित्रं चेदेकता कुतः। एकं चैव तु चित्रं चेत्येतच्चित्रतरं ततः ॥१॥" इति को विरोध इत्यादि । चित्रात्मनो रूपस्य नायुक्तता, विचित्रकारणसामर्थ्यभाविनस्तस्य सर्वलोकप्रसिद्धेन प्रत्यक्षेणैवोपपादितत्वात्" [प्रश. कन्द. पू. ३०] इत्यादि। एकस्यैव धूपकडुच्छकस्यैकस्मिन् भागे शीतस्पर्शः परस्मिश्च भाग उष्णस्पर्शः । अवयवानां भिन्नत्वेऽप्यवयविन एकत्वादेकस्यैव द्वौ विरुद्धौ तौ स्पर्शी, यतस्तेषामेवं सिद्धान्तः 'एकस्यैव पटादेश्चलाचलरक्तारक्तावताऽनावृताद्यनेकविरुद्धधर्मोपलम्भेऽपि दुर्लभो विरोधगन्धः' इति । नित्यस्येश्वरस्य सिसृक्षासंजिहीर्षा च, रजस्तमोगुणात्मको स्वभावौ, क्षितिजलाद्यष्टमूर्तिता ज्ञानों में पूर्व-पूर्व साधकतम अंशों में प्रमाणता तथा उत्तरोत्तर साध्य अंशोंमें फलरूपता समझ लेनी चाहिए। एक ही ज्ञान पूर्वकी अपेक्षा फल तथा उत्तरको अपेक्षा प्रमाणरूप होता है। इस तरह एक ही ज्ञान में प्रमाणता तथा फलरूपता मानना अनेकान्तका हो समर्थन करना है। एक ही नानारंगवाले चित्रपट रूप अवयवीमें चित्र-विचित्र रूप मानते हैं। एक ही अवयवीको चित्र-विचित्र अनेक रूपवाला मानने में इन्हें कोई विरोध नहीं मालूम होता । वे स्वयं अवयवीकी चित्ररूपतामें आनेवाले विरोधका परिहार करते हैं। न्यायकन्दलीमें श्रीधराचार्यने विरोधपरिहार करते हुए लिखा है कि-"शंका-एक अवयवीमें अनेक रूप मानने में तो विरोध दूषण आता है अतः एक अवयवीको चित्ररूप मानना अयुक्त है। किसी बकवादी वादीने कहा भी है-यदि एक है तो चित्रअनेकरूपवाला कैसे हो सकता है ? यदि चित्र-अनेकरूपवाला है तो उसमें एकता कैसे हो सकती है ? एकता और चित्रतामें तो विरोध है । एक भी कहना और चित्र-अनेक भी कहना तो वस्तुतः चित्रतर-अत्यन्त आश्चर्यकी बात है। समाधान-इनमें क्या विरोध है ? रूपको चित्र मानना किसी भी तरह अयक्त नहीं है. क्योंकि चित्र रूपवाले कारणोंसे रूप स्वयं ही चित्र रूपसे उत्पन्न होता है। यह बात सब लोगोंको प्रत्यक्षसे ही अनुभवमें आती है। प्रत्यक्षसिद्ध वस्तुमें विरोध कैसा ?" इस तरह एक अवयवीको चित्ररूपवाला मानना अनेकान्तवादके बिना नहीं हो सकता। एक ही धूपदानीका एक हिस्सा ठण्डा तथा दूसरा हिस्सा गरम देखा जाता है। यद्यपि धूपदानीमें अवयवभेद माना जा सकता है; परन्तु धूपदानी नामका अवयवी तो एक ही है और उसी एक धूपदानीरूप अवयवीमें परस्पर विरुद्ध शीत और उष्ण दोनों ही स्पर्श पाये जाते हैं। वैशेषिकोंका ही यह सिद्धान्त है कि-एक ही पट आदि अवयवीमें एक हिस्सेसे चलरूपता-क्रिया होना हिलना तथा दूसरे हिस्सेसे अचल-स्थिर रहना, एक हिस्से में लालरंगका संयोग होनेसे लाल हो जाना तथा दूसरी ओर बिना रंगा, सफेद ही रहना, एक हिस्सेको किसी दूसरे कपड़ेसे आवृतढंका जाना तथा दूसरे हिस्सेसे खुला रहना आदि अनेक विरोधी धर्मोंके रहनेपर भी कोई विरोध नहीं है। विरोध तो तब होता जब एक ही हिस्से की दृष्टि से विरोधी दो धर्मोको सत्ता मानी जाती पर भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे अनेक धर्मोंको मानने में विरोधकी गन्ध भी नहीं है। वे नित्य एक ईश्वरमें जगत्के रचनेकी इच्छा तथा जगत्का प्रलय-संहार करनेकी इच्छा, रजोगुण और तमोगुण १. विरोधादेकमनेकस्वभावमयुक्तमिति चेत् तथा च प्रावटुकप्रवादः । एकं च चित्रं चेत्येतच्च चित्रतरं तत इति । को विरोधो नीलादीनां न तावदितरेतराभावात्मको भावस्वभावानुगमात् । अन्योन्यसंश्रयापत्तेश्च स्वरूपान्यत्वं विरोध इति चेत् सत्यमस्त्येव तथापि चित्रात्मनो रूपस्य नायुक्तता विचित्रकारणसामर्थ्यभाविनस्तस्य सर्वलोकप्रसिद्धन प्रत्यक्षेणेवोपपादितत्वात ।"- प्रश. कन्द. पृ.३०। २. तरं मत आ., क. । ३. -लम्भे दुर्ल-म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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