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________________ - का०५७.६३८२] जैनमतम् । ३७१ $३८१. ज्ञानवादिनोऽपि ताथागताः स्वार्थाकारयोरभिन्नमेकं संवेदनं संवेदनाच्च भिन्नौ ग्राह्यग्राहकाकारौ स्वयमनुभवन्तः कथं स्याद्वादं निरस्येयुः। तथा संवेदनस्य ग्राह्यग्राहकाकारविकलता स्वप्नेऽपि भवद्धिर्नानुभूयते, तस्या अनुभवे वा सकलासुमतामधुनैवे मुक्ततापत्तेः, तत्त्वज्ञानोत्पत्तिर्मुक्तिरिति वचनात् । अनुभूयते च संवेदनं संवेदनरूपतया कथंचित् । तत एकस्यापि संवेदनस्यानुभूताननुभूततयानेकान्तप्रतिभासो दुःशकोऽपह्नोतुमिति । तथा सर्वस्य ज्ञानं स्वसंवेदनेन ग्राह्यग्राहकाकारशून्यतयात्मानमसंविदत्, संविद्रूपतां चानुभवद्विकल्पेतरात्मकं सदेकान्तवादस्य प्रतिक्षेपकमेव भवेत् । तथा ग्राह्याकारस्यापि युगपदनेकार्थावभासिनश्चित्रैकरूपता प्रतिक्षिपत्येवैकान्तवादमिति । ६३८२. नैयायिकैवैशेषिकैश्च यथा स्याद्वादोऽभ्युपजग्मे तथा प्रवश्यते । इन्द्रियसंनिकर्षादधूमज्ञानं जायते, तस्माच्चाग्निज्ञानम् । अत्रेन्द्रियसंनिकर्षादि प्रत्यक्ष प्रमाणं तत्फलं धूमज्ञानम्, धमज्ञानं चाग्निज्ञानापेक्षयानुमान प्रमाणम्, अग्निज्ञानं त्वनुमानफलम्। तदेवं धमज्ञानस्य प्रत्यक्षफलतामनुमानप्रमाणतां चोभयरूपतामभ्युपगच्छन्ति । एवमन्यत्रापि ज्ञाने फलता प्रमाणता च $३८१. ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार ज्ञानाकार और अर्थाकारको अभिन्न मानते हैं । वे ज्ञानसे भिन्न किसी बाह्य अर्थको सत्ता स्वीकार नहीं करते। ज्ञान ही ग्राह्य-पदार्थके आकारमें तथा ग्राहक-ज्ञानके आकार में प्रतिभासित होता है। इस तरह एक ही संवेदनमें परस्पर भिन्न ग्राह्याकार तथा ग्राहकाकारका स्वयं अनुभव करनेवाले ज्ञानवादो स्याद्वादका कैसे निराकरण कर सकते हैं। उनका ग्राह्य-ग्राहकाकार संवेदन ही स्वयं अनेकान्तवादका समर्थन कर रहा है। संवेदनमात्र परमार्थतः ग्राह्य और ग्राहक दोनों ही आकारोंसे सर्वथा शून्य निरंश है। परन्तु संवेदनको यह वास्तविक ग्राह्याद्याकाररहितता सपने में भी नहीं दिखाई देती। यदि संवेदनके इस वास्तविक ग्राह्याद्याकाररहित निरंश स्वरूपका अनुभव होने लगे तो सभी प्राणियोंको तत्त्वज्ञान होनेसे अभी ही मुक्ति हो जायगी। "तत्त्वज्ञानकी उत्पत्ति ही मुक्ति है" यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। संवेदनकी संवेदनरूपताका अनुभव तो सभी प्राणियोंको होता ही रहता है। इस तरह एक ही संवेदनका ग्राह्यादि आकार शून्यताकी दृष्टिसे अनुभव न होना तथा उसीका संवेदनरूपताकी दृष्टिसे अनुभव होना अनेकान्तवादका ही रूप है । एक ही संवेदनमें अननुभूतता तथा अनुभूतता रूप दो धर्मोंके माननेवालेको अनेकान्तका लोप करना स्ववचन विरोध ही होगा, उसका लोप करनेसे संवेदनके स्वरूपका ही लोप हो जायगा। इसी तरह सभी ज्ञानोंके स्वसंवेदन ज्ञानकी ग्राह्याद्याकाररहितता-निरंशताका तो अनुभव नहीं कर पाते पर संवेदनरूपताका अनुभव अवश्य करते हैं। इस तरह एक ही ज्ञानको निरंशताकी दृष्टिसे अनिश्चयात्मक तथा संवेदनरूपताकी दृष्टि से निश्चयात्मक मानना स्वयं उनके एकान्तवादका खण्डन करके स्याद्वादकी सिद्धि कर देता है। संवेदनका ग्राह्याकार भी एक साथ अनेक पदार्थों के आकार परिणत हो एक होकर भी चित्रविचित्र रूपसे प्रतिभासित होता है। एक ग्राह्याकारकी यह चित्ररूपता भी अनेकान्तका स्थापन तथा एकान्तवादका खण्डन कर देती है। ६३८२. अब नैयायिक और वैशेषिकोंने जहां-जहाँ जिस-जिस पदार्थ व्यवस्थामें अनेकान्तका उपयोग किया है, वे स्थल बताते हैं-इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे धूमका प्रत्यक्ष होता है तथा धूमज्ञानसे अग्निका अनुमान होता है। यहाँ इन्द्रियसन्निकर्ष आदि प्रत्यक्ष प्रमाणरूप हैं तथा धमज्ञान है उनका फल। धमज्ञान अग्निका अनुमान करानेके कारण अनुमान प्रमाणरूप है तथा अग्निका ज्ञान उसका फल है। अब विचार कीजिए कि-एक ही धूमज्ञानमें प्रत्यक्षकी दृष्टिसे फलरूपता तथा अग्निज्ञानकी दृष्टिसे प्रमाणरूपता स्वयं वैशेषिकोंने मानी है। इसी तरह और भी १. -कं संवेदनाच्च भ. २ । २. -धुनैवं मु-म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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