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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का. ५७.६३८०विद्यते, 'यथा रूपरसगन्धादिसामनोगतं रूपमुपादानभावेन स्वोत्तरं रूपक्षणं जनयति, रसादिक्षणांश्च सहकारितया, 'तदेव च रूपं रूपालोकमनस्कारचक्षुरादिसामग्र्यन्तरगतं सत्पुरुषस्य ज्ञान सहकारितया जनयति । आलोकायुत्तरक्षणांश्च तदेवमेकं कारणमनेकानि कार्याणि युगपत्कुर्वाणं किमेकेन स्वभावेन कुर्यात्, नानास्वभावैर्वा । यद्येकेन स्वभावेन; तःकस्वभावेन कृतत्वात्कार्याणां भेदोन स्यात । अथवा नित्योऽपि पदार्थ एकेन स्वभावेन नानाकार्याणि कर्वाणः कस्मानिषिध्यते । अथ नित्यस्यैकस्वभावत्वेन नानाकार्यकरणं न घटते, तमुनित्यस्यापि तेषां करणं कथमस्तु । निरंशैकस्वभावत्वात् । सहकारिभेदाच्चेत्कुरुते । तहि नित्यस्यापि सहकारिभेदात्तदस्तु । अथ नानास्वभावैरनित्यः कुर्यादिति चेत्, नित्यस्यापि तथा तत्करणमस्तु। अथ नित्यस्य नानास्वभावा न संभवन्ति, कूटस्थनित्यस्यैकस्वभावत्वात्, तहर्यनित्यस्यापि नानास्वभावा न सन्ति, निरंशैकस्वभावत्वात् । तदेवं नित्यस्यानित्यस्य च समानदोषत्वान्नित्यानित्योभयात्मकमेव वस्तु मानितं वरम् । तथा चैकान्तनित्यानित्यपक्षसंभवं दोषजालं सर्व परिहृतं भवतीति । रूपक्षणको उपादान होकर उत्पन्न करता है। वही रूपक्षण उत्तर रसादि क्षणोंकी उत्पत्तिमें सहकारी होता है वही रूपक्षण रूप आलोक मनस्कार चक्षुरादि ज्ञानसामग्रीमें शामिल होकर रूपज्ञानमें आलम्बन कारण होता है तथा आलोक आदिके उत्तरक्षणोंकी उत्पत्तिमें सहकारी। रूपज्ञानको उत्पत्तिमें मनस्कार-पूर्वज्ञान तो समनन्तर प्रत्यय-उपादान कारण होता है, रूपक्षण आलम्बन प्रत्यय-विषयरूपसे कारण, आलोक-सहकारी कारण तथा चक्षुरादि इन्द्रियाँ अधिपति प्रत्यय हैं । चक्षुरादि ज्ञानके स्वामी होकर कारण होते हैं। जिस इन्द्रियसे ज्ञान उत्पन्न होता है उस ज्ञानका उसी इन्द्रियके नामसे चाक्षुष रासन आदि रूपसे व्यवहार होता है, अतः चक्षु आदि इन्द्रियाँ अधिपति प्रत्यय होती हैं। इस तरह एक ही रूपक्षण अनेक कार्योंको एक साथ उत्पन्न करता है । इस विषयमें सौत्रान्तिकोंसे पूछना चाहिए कि-वह रूपक्षण युगपत् अनेक कार्यों को एक स्वभावसे उत्पन्न करता है या अनेक स्वभावोंसे ? यदि एक स्वभावसे ही अनेक कार्य उत्पन्न हों, तो उन कार्योंमें स्वभावभेद नहीं हो सकेगा, वे सब एक ही स्वभाववाले हो जायेंगे। और इसी तरह नित्य भी यदि एक स्वभावसे अनेक कार्य करता है तो कायोंमें अभिन्न-स्वभावताका प्रसंग देकर उसका निषेध क्यों किया जाता है ? यदि एक स्वभाववाला होनेसे नित्य अनेक कार्यों को नहीं कर सकता तो एकस्वभाववाला क्षणिक भो कैसे उन्हें करता है ? नित्यकी तरह क्षणिकको भी तो आप निरंश तथा एक स्वभाववाला ही मानते हैं। यदि विभिन्न सहकारियोंकी सहायतासे निरंश और एक स्वभाववाला भी क्षणिक कारण अनेक कार्योंको उत्पन्न करता है; तो इसी तरह विभिन्न सहकारियोंकी मददसे एकस्वभाववाले नित्यको भी अनेक कार्यों का उत्पादक मान लेना चाहिए। यदि क्षणिक पदार्थ अनेक स्वभावोंसे अनेक कार्य उत्पन्न करता है, तो नित्यको भी अनेक स्वभावों द्वारा अनेक कार्योंका कर्ता मान लेना चाहिए। यदि एकस्वभाववाला होनेके कारण कूटस्थ सदास्थायी नित्यमें अनेक स्वभावोंको सम्भावना नहीं हो; तो निरंश तथा एक स्वभाववाले क्षणिकमें भी अनेक स्वभाव कहाँसे आयेंगे? वह भी तो नित्यकी ही तरह एक स्वभाववाला है ? इस तरह सर्वथा नित्य तथा सर्वथा क्षणिक वस्तुमें बराबर समान दोष आते हैं अतः नित्यानित्यात्मक वस्तको ही कार्यकारी मानना समचित है। वस्तको नित्यानित्यात्मक माननेसे सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य पक्षमें आनेवाले सभी दोषोंका परिहार हो जाता है। इस तरह सौत्रान्तिक एक क्षणको युगपत् अनेक कार्यकारी मानकर भी अपने सर्वथा क्षणिकत्वके आग्रहके कारण उसे हजम नहीं कर सकते।
१. यथा स्वरूप-भ.२।२. तदेव च रूपा-भ. २ । ३. -स्वभावेन नाना-म. २ ।
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