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-का० ५७. १३८७ ] जैनमतम् ।
३७७ नान्वयः स हि भेदित्वान्न भेदोऽन्वयवृत्तितः । मृभेदद्वयसंसर्गवृत्तिजात्यन्तरं घटः ।।२।।" अत्र हिशब्दो हेतौ यस्मादर्थे स घटः। "भागे सिंहो नरो भागे योऽर्थो भागद्वयात्मकः । तमभागं विभागेन नरसिंह प्रचक्षते ॥३॥ न नरः सिंहरूपत्वान्न सिंहो नररूपतः। शब्दविज्ञानकार्याणां भेदाज्जात्यन्तरं हि सः ॥४॥" "त्रैरूप्यं पाञ्चरूप्यं वा ब्रुवाणा हेतुलक्षणम् ।
सदसत्त्वादि सर्वेऽपि कुतः परे न मन्वते ॥५॥" $ ३८७. यथैकस्यैव नरस्य पितृत्वपुत्रत्वाद्यनेकसंबन्धा भिन्ननिमित्ता न विरुध्यन्ते । तद्यथास नरः स्वपित्रपेक्षया पुत्रः, स्वसुतापेक्षया तु पितेत्यादि । अभिन्ननिमित्तास्तु संबन्धा विरुध्यन्ते, तद्यथा-स्वपित्रपेक्षय स पिता पुत्रश्चेत्यादि । एवमनेकान्तेऽपि द्रव्यात्मनेक पर्यायात्मना त्वनेकमित्यादिभिन्ननिमित्ततया न विरुध्यते । द्रव्यात्मनैवैकमनेकं चेत्यादि त्वभिन्ननिमित्तया विरुध्यते । तरह एक ही वस्तुमें नामघट, स्थापनाघट आदि रूपसे नामादि चार निक्षेपोंका व्यवहार हो जाता है। उसमें चारों ही धर्म परस्पर सापेक्ष भावसे मिलकर रहते हैं ॥१॥ मिट्टीके घड़े में न तो मिट्टी और घड़ेका सर्वथा अभेद ही माना जा सकता है और न भेद ही। मिट्टीरूपसे सर्वथा अभेद नहीं कह सकते; क्योंकि वह मिट्टी दूसरी थी यह दूसरी है, अवस्था भेद तो है ही। उनमें सर्वथा भेद भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि मिट्टीरूपसे अन्वय पाया जाता है पिण्ड भी मिट्टीका ही था और घड़ा भी मिट्टीका ही है। तात्पर्य यह कि घड़ा सर्वथा अभेद और सर्वथा भेद रूप दो जातियोंसे अतिरिक्त एक कथंचिद् भेदाभेद रूप तीसरी जातिका ही है। न सर्वथा उसी अवस्थावाली मिट्टीरूप है और न मिट्टीसे सोनेका बन गया है, किन्तु द्रव्यरूपसे उस मिट्टीका उसमें अन्वय है तथा पर्यायरूपसे भेद । इस श्लोकमें 'हि' शब्दका 'यस्मात्-जिस कारणसे' अर्थ है । नरसिंहावतारकी चर्चा संसारमें प्रसिद्ध है । वह ऊपरके मुख आदि अवयवोंमें सिंहके आकारका है तथा अन्य पैर आदि अवयवोंकी दृष्टिसे नर-मनुष्यके आकारका है। तात्पर्य यह कि जो उक्त दोनों प्रकारके अवयवोंका अखण्ड अविभागोरूप है वही नरसिंह है। उसमें भेद दृष्टिसे भले ही नर और सिंहकी कल्पना कर ली जाय परन्तु वस्तुतः वह दोनों अवयवोंसे तादात्म्य रखनेवाला अखण्ड पदार्थ है । न तो उसे नर ही कह सकते हैं क्योंकि वह अंशतः सिंहरूप भी तो है और न उसे सिंहरूप ही कह सकते हैं क्योंकि वह अंशतः नररूप भी है। वह तो इन दोनोंसे भिन्न एक तीसरी ही मिश्रित
तिका अखण्ड पदार्थ है जिसमें वे दोनों भाग पाये जाते हैं। नरसिंहका वाचक शब्द, नरसिंहाकार ज्ञान तथा नरसिंहका कार्य मनुष्य और सिंहके वाचक शब्द ज्ञान और कार्योंसे अत्यन्त भिन्न है। जो बौद्ध और नैयायिक एक ही हेतुके तीनरूप तथा पांच रूप तक मानते हैं वे एक वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व इन दो रूपोंको मानने में आनाकानी करते हैं यह बड़े आश्चर्यकी बात है।"
३८७. जैसे एक ही पुरुषमें पितापन, पुत्रपन आदि अनेक धर्म भिन्न-भिन्न पुरुषोंकी अपेक्षा. से बन जाते हैं उनमें कोई विरोध नहीं आता उसी तरह अनेकान्तात्मक वस्तु भी सर्वथा निर्बाध है। वही मनुष्य अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र तथा अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है। यदि एक ही निमित्तसेपिताको ही अपेक्षासे वह पिता और पुत्र दोनों रूपसे कहा जाता तो अवश्य ही विरोध होता, पर
१. उद्धृतोऽयम्-अनेकान्तवादप्र. पृ. ३१ । न्यायकुमु. पृ. ३६९ । अनेकान्तजयप. पृ. ११९ । तस्वार्थमा. टी. ३७७ । २. उधतोऽयम्-तत्वोप. पृ.७९। ३. उद्धृतोऽयम्-न्यायावता. वा. वृ. पृ. ८ न्यायकुमु. पृ. ३६९ । ४. -क्षया स पिता म.३।
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