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-का० ५७. ६३७९ ]
जैनमतम् । कुर्वन्तो नूनं कुलीनताभिमानिनो मानवस्य स्वजननीमाजन्मतोऽप्यसतीमाचक्षाणस्य वृत्तमनुकुर्वन्ति । तथाहि-प्रथमतः सौगताभ्युपगतोऽनेकान्तः प्रकाश्यते । दर्शनेन क्षणिकाक्षणिकत्वसाधारणस्यार्थस्य विषयीकरणात कुतश्विद् भ्रमनिमित्तादक्षणिकत्वारोपेऽपि न दर्शनमक्षणिकत्वे प्रमाणं, कि तु प्रत्युता. प्रमाणं, विपरीताध्यवसायाक्रान्तत्वात् । क्षणिकत्वेऽपि न तत्प्रमाणं अनुरूपाध्यवसायाजननात् नीलरूपे तु तथाविधनिश्चयकरणात्प्रमाणमित्येवं वादिनां बौद्धानामेकस्यैव दर्शनस्य क्षणिकत्वाक्षणिकत्वयोरप्रामाण्यं, नीलादौ तु प्रामाण्यं प्रसक्तमित्यनेकान्तवादाभ्युपगमो बलादापतति । तथा दर्शनोत्तरकालभाविनः स्वाकाराध्यवसायिन एकस्यैव विकल्पस्य बाह्यार्थे सविकल्पकत्वमात्मकार्य तथा व्यवहारमें स्याद्वादको स्वीकार करके भी उसे मुंहसे नहीं कहना चाहते उलटे उस व्यवहारनिर्वाहक स्याद्वादका अंटसंट वचनोंसे खण्डन करते हैं। उस समय उनकी दशा उस मूर्ख कुलीनकी तरह दयनीय हो जाती है, जो अपने कुलकी पवित्रताका अभिमान रखकर भी मूर्खतावश अपने ही वचनोंसे अपनी माताको असती-व्यभिचारिणी कहता फिरता हो। सर्वप्रथम बौद्धोंने जिस-जिस प्रकार अनेकान्तवादको अगत्या स्वीकार किया है उसका विवेचन करते हैं-बौद्ध निर्विकल्पकदर्शनको प्रमाण रूप भी मानते हैं तथा अप्रमाणरूप भी। उनका मत है कि-निविकल्पकदर्शन-प्रत्यक्ष ऐसे साधारण पदार्थको विषय करता है जो क्षणिक भी हो सकता है तथा अक्षणिक-नित्य भी। अनादिकालीन अविद्या और पदार्थों की प्रतिक्षण सदृशरूपसे उत्पत्ति रूप कारणोंसे वस्तुमें 'यह वही वस्तु है' इस प्रकारका नित्यत्वका आरोप हो जाता है। इस मिथ्या आरोपके कारण वस्तु नित्यरूपमें भासित होने लगती है । निर्विकल्पकदर्शन इस नित्यत्वके आरोपमें प्रमाण नहीं है वह इसका समर्थन नहीं करता। वह तो उलटा इस नित्यत्वारोपमें अप्रमाण ही है। क्षणिकवस्तुमें नित्यत्वरूप विपरीत आरोप होने के कारण दर्शन इसमें प्रमाण हो ही नहीं सकता, क्योंकि दर्शन तो वस्तुके अनुसार ही उत्पन्न होता है। इस तरह निर्विकल्पदर्शन नित्यत्वके आरोप में प्रमाण तो है ही नहीं बल्कि अप्रमाण ही है। यद्यपि निर्विकल्पक दर्शन क्षणिक अंशका अनुभव कर लेता है परन्तु 'यह क्षणिक है' ऐसे अनुकूल विकल्पको उत्पन्न करने के कारण वह क्षणिकांशमें भी प्रमाण नहीं है। यदि निर्विकल्पक ही क्षणिकांशमें प्रमाण हो जाय; तो अनुमानसे क्षणिकत्वकी सिद्धि करने की कोई आवश्यकता हो न होनी चाहिए। और ऐसी हालतमें 'सब क्षणिक हैं सत् होनेसे' यह अनुमान निरर्थक ही हो जायगा। इस तरह निर्विकल्पक क्षणिक अंशमें भी प्रमाण नहीं है। नीलादि अंशोंमें तो 'यह नीला है' इस प्रकारके अनुकूल विकल्पको उत्पन्न करनेके कारण वह प्रमाण माना जाता है। तात्पर्य यह कि एक ही निर्विकल्पक दर्शनको नीलादि अंशोंमें अनुकूलविकल्पको उत्पत्ति होनेसे प्रमाण रूप तथा क्षणिक और अक्षणिक अंशोंमें अप्रमाणरूप माननेवाले बौद्धोंने अनेकान्तको बलात् अपना ही लिया है। उनका एक ही दर्शनको प्रमाण और अप्रमाण दोनों रूप मानना अनेकान्तवादका ही समर्थन करना है। इसी तरह वे निर्विकल्पकके बाद उत्पन्न होनेवाले सविकल्पकज्ञानको बाह्यार्थमें सविकल्पक तथा स्वरूपमें निर्विकल्पक मानते हैं । निर्विकल्पकदर्शनके बाद 'यह नीला है, यह पीला है' इत्यादि विकल्पज्ञान उत्पन्न होते हैं । ये विकल्पज्ञान अपने आकारमात्रका ही निश्चय करनेवाले होते हैं। ये बाह्य नीलादि अंशोंमें ही शब्द योजना होने से सविकल्पक होते हैं। स्वरूपकी दृष्टिसे तो सभी ज्ञान निर्विकल्पक ही होते हैं । ज्ञान चाहे निर्विकल्पक हो या सविकल्पक, दोनोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तो निर्विकल्पक रूप ही होता है। धर्मकीर्ति नामके बौद्धाचार्यने स्वयं न्यायबिन्दुमें कहा है कि"समस्त चित्त सामान्य अवस्थाको ग्रहण करनेवाले ज्ञान तथा चैत्त विशेष अवस्थाओंके ग्राहक
१. - प्रामाण्यं प्रसक्त-भ. २ । २. -गमोऽवपतति भ, २ ।
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