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________________ ३६६ षड्दर्शनसमुच्चये [का० १७.६३७८ - स्यात् । एवं 'कृतमपि न कृतम्, उक्तमप्यनुक्तम् भुक्तमप्यभुक्तम्' इत्यादि सर्व यदुच्यते परैः; तदपि निरस्तमवसेयम। $३७८. ननु सिद्धानां कर्मक्षयः किमेकान्तेन कथंचिद्वा, आद्येऽनेकान्तहानिः। द्वितीये सिद्धानामपि सर्वथा कर्मक्षयाभावादसिद्धत्वप्रसङ्गः, संसारिजीववदिति, अत्रोच्यते-सिद्धैरपि स्वकर्मणां क्षयः स्थित्यनुभागप्रकृतिरूपापेक्षया चक्रे, न परमाण्वपेक्षया। न ह्मणूनां क्षयः केनापि कर्तुं पार्यते, अन्यथा मुद्गरादिभिर्घटादीनां परमाणुशो विनाशे कियता कालेन सर्ववस्त्वभावप्रसङ्गः स्यात् । ततस्तत्राप्यनेकान्त एवेति सिद्धं दृष्टेष्टाविरुद्धमनेकान्तशासनम् । ३.९. एते हि बौद्धादयः स्वयं स्याद्वादवादं युक्त्याभ्युपगच्छन्तोऽपि तं वचनैरेव निरा. पक्षमें एकरूपता हो सकती है या तो सब संसारी बने रहें या फिर सब मुक्त हो जायें। इसी तरह अनेकान्तवादमें कहा हुआ भी वचन कथंचित् नहीं कहा हुआ, किया हुआ भी कार्य कथंचित् नहीं किया हुआ, खाया हुआ भी भोजन कथंचित् नहीं खाया हुआ होना चाहिए' इत्यादि दूषण भी असत्य हैं, क्योंकि एक ही वस्तुमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे विरोधी धर्म मानना प्रमाणसिद्ध है । जो कार्य किया गया है उसकी हो अपेक्षा 'कृत', जो बात कही गयी है उसकी ही अपेक्षा 'उक्त' तथा जो भोजन खाया गया है उसकी ही अपेक्षा 'भुक्त' व्यवहार हो सकता है न कि अन्य वस्तुओंकी अपेक्षा। अतः अन्य वस्तुओंकी अपेक्षा 'अकृत, अनुक्त या अभुक्त' व्यवहार होने में कोई भी बाधा नहीं आती। ३०८ शंका-आपके सिद्ध मुक्त जीवोंने कर्मोंका एकान्तसे सर्वथा क्षय किया है या कथंचित् ? यदि सर्वथा क्षय किया है; तो अनेकान्तवाद कहाँ रहा ? जहां कोई भी बात सर्वथा'ऐसा ही है'-मानी वहीं एकान्तवादका प्रसंग हो जाता है। यदि सिद्धोंने कर्मोका क्षय कथंचित् किया है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि आपके सिद्ध सर्वथा कर्मरहित नहीं हैं उनमें भी कथंचित् कर्मका सद्भाव है जैसे कि संसारी जीवोंमें । इस तरह अनेकान्तवाद बड़ी अव्यवस्था उत्पन्न कर देता है। समाधान-सिद्ध जीवोंने भी कर्मपरमाणुओंकी स्थिति फल देनेकी शक्ति तथा अपने प्रति कर्मत्वरूपसे परिणमन करनेका नाश किया है न कि कर्मपरमाणुमात्रका समूलननाश । उन्होंने उन परमाणुओंका अपनो आत्मामें कर्मरूपसे सम्बन्ध नहीं रहने दिया। परमाणुरूप पुद्गल द्रव्य तो नष्ट नहीं किया ही जा सकता। कोई भी अनन्तशक्तिशाली भी किसी द्रव्यका समूलनाश नहीं कर सकता। यदि इस तरह परमाणुओंका नाश होने लगे तो फिर मुद्गर आदिके परमाणुओं तक समूलनाश होनेसे एक न एक दिन संसारसे परमाणुओंका नामोनिशां मिट जायेगा। उनका सर्वापहारो लोप हो जानेसे संसारके समस्त पदार्थों का अभाव हो जायेगा । अतः जिस तरह मुद्गरको चोट घड़ेकी पर्यायका नाश करता है और परमाणुओंको पड़े रहने देता है उसी तरह सिद्ध भी कर्मपरमाणुओंको कर्मत्वपर्यायका नाश करते हैं न कि परमाणुओंका। वे परमाणु जली रस्सीकी तरह सिद्धकी आत्माके ऊपर भी पड़े रहे हैं तब भी बन्धनमें कारण नहीं हो सकते । अतः सिद्धोंके कर्मक्षयमें भी अनेकान्त रूपता है । इस तरह प्रत्यक्ष और अनुमानादि प्रमाणोंसे सर्वथा अबाधित अनेकान्त शासनकी सिद्धि हो जाती है। $३७९. इन अकाट्य युक्तियोंसे बौद्ध आदि वादी स्वयं स्याद्वादको स्वीकार करते हैं, इसके माने बिना उनका शास्त्रव्यवहार या लोकव्यवहार ही गड़बड़ोमें पड़ जाता है। इस तरह अपने १. परमाणुविना-आ., क. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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