SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - का० ५७.६३७७ ] जैनमतम् । ३६५ भासमानयोः सत्त्वासत्त्वयोः का नाम प्रमाणबाधा । न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, अन्यथा सर्वत्रापि तत्प्रसङ्गः । प्रमाणप्रसिद्धस्य च नाभावः कल्पयितुं शक्यः, अतिप्रसङ्गात् प्रमाणादिव्यवहारविलोपश्च स्यादिति । $ ३७७. एतेन यदप्युच्यते 'अनेकान्ते प्रमाणमप्यप्रमाणं सर्वज्ञोऽप्यसर्वज्ञः सिद्धोऽप्यसिद्धः ' इत्यादि, तदप्यक्षरगुण निकामात्रमेव; यतः प्रमाणमपि स्वविषये प्रमाणं परविषये चाप्रमाणमिति स्याद्वादिभिर्मन्यत एव । सर्वज्ञोऽपि स्वकेवलज्ञानापेक्षया सर्वज्ञः सांसारिक जीवज्ञानापेक्षया त्वसर्वज्ञः । यदि तदपेक्षयापि सर्वज्ञः स्यात्; तदा सर्वजीवानां सर्वज्ञत्वप्रसङ्गः, सर्वज्ञत्वस्यापि छास्थिकज्ञानित्वप्रसङ्गो वा । सिद्धोऽपि स्वकर्मपरमाणु संयोगक्षयापेक्षया सिद्धः परजीवकर्मसंयोगापेक्षा त्वसिद्धः । यदि तदपेक्षयापि सिद्धः स्यात् तदा सर्वजीवानां सिद्धत्वप्रसक्तिः पर्यायी अपेक्षा जल को भी अग्निरूप कह सकते हैं। गरम जलमें तो कथंचिद् अग्निरूपता मानी ही जाती है । अतः वर्तमान जल पर्यायसे चलनेवाले लोकव्यवहारमें कोई विरोध नहीं आ सकता । सब सत्त्व और असत्त्व प्रत्यक्षबुद्धि में स्पष्टरूपसे प्रतिभास होता है तब प्रमाणबाधावा प्रसंग ही कैसे आ सकता है ? प्रत्यक्ष सिद्ध पदार्थ में अनुपपत्ति कैसी ? अन्यथा सभी पदार्थों में विवाद हो सकता है । प्रमाणसिद्ध वस्तुका अभाव भी कैसे किया जा सकता है ? अन्यथा संसारके समस्त पदार्थों का अभाव हो जायेगा । और सभी व्यवहारोंका लोप हो जायेगा । § ३७७. इस विवेचनसे आपका यह कहना 'अनेकान्तवाद में प्रमाण भी अप्रमाण, सर्वज्ञ भी असर्वज्ञ तथा सिद्ध भी संसारी हो जायेगा' भी केवल अर्थशून्य अक्षरोंकी गिनती के समान ही निरर्थक है । क्योंकि स्याद्वादी प्रमाणको भी अपने विषयमें ही प्रमाण रूप मानते हैं, पर विषय में तो वह अप्रमाण रूप हो है । घटज्ञान घटविषय में प्रमाण है तथा पटादिविषयों में अप्रमाण । अतः एक ही ज्ञान विषयभेदसे प्रमाण भी है तथा अप्रमाण भी । सर्वज्ञ भी अपने केवलज्ञानकी अपेक्षा सर्वज्ञ है तथा संसारी जीवोंके अल्पज्ञानकी अपेक्षा असर्वज्ञ । यदि संसारियोंके ज्ञानकी अपेक्षा भी वह सर्वज्ञ हो जाय तो इसका अर्थ यह हुआ कि संसारके समस्त प्राणी सर्वज्ञ हैं । सर्वज्ञ अपने ज्ञानके द्वारा ही सबको जानता है। यह वह हम लोगोंके ज्ञानके द्वारा भी पदार्थों का ज्ञान कर सके तो फिर उसको आत्मा और हमारी आत्मामें कोई अन्तर ही नहीं रहेगा । जिस तरह हम अपने ज्ञानसे जानते हैं उसी तरह सर्वज्ञ भी हमारे ही ज्ञानसे जानता है । अतः सर्वज्ञ और हमारी आत्मामें अभेद होने से या तो सर्वज्ञको तरह हम सब लोग सर्वज्ञाता हो जायेंगे या हमारी तरह सर्वज्ञ भी अल्पज्ञ ही हो जायेगा । सिद्ध-मुक्तजीव भी अपने साथ लगे हुए कर्मपरमाणुओं से छूटकर सिद्ध हुए हैं अतः वे स्वसंयोगी कर्मपरमाणुओं की अपेक्षा मुक्त हुए हैं न कि अन्य आत्माओंसे संयुक्त कर्म परमाणुओं की अपेक्षा । यदि वे अन्य आत्माओंसे संयुक्त कर्म परमाणुओं की अपेक्षा भी सिद्ध माने , तो इसका यह अर्थ हुआ कि 'अन्य आत्माओंके धर्म भी सिद्धजीवके स्वपर्याय हैं तभी तो वह अन्य आत्माओं से संयुक्त कर्म परमाणुओं की अपेक्षा भी सिद्ध माना जाता है।' इस तरह अन्य संसारी आत्माएँ तथा सिद्ध आत्माओं में सोधा स्वपर्यायका सम्बन्ध होने से अभेदरूपता हो जायगी और इससे या तो समस्त संसारो जोव सिद्ध हो जायेंगे या फिर सिद्ध संसारी हो जायेंगे । अभेद १. - नयोः का म. २ | २. "स्वर्गापवर्गयोश्च पक्षे भावः पक्षे चाभावस्तथा पक्षे नित्यता क्षे चानित्यतेत्यनवधारणायां प्रवृत्त्यनुपपत्तिः । अनादिसिद्धजीवप्रभृतीनां च स्वशास्त्रविधृतस्वभावानामयथावधृतस्वभावत्वप्रसङ्गः ।" - ब्रह्म शां. भा. २२२३३ । " तथा मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्तत इति मुक्तो न मुक्तश्चेति स्यात् । एवं च सति स एव मुक्तः संसारी चेति प्रसक्तेः ।" प्रश, व्यो. पू. २० च । ३. तदपि भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy