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[ का० ५७. ६ ३७४
प्रतिभासनात् । न खलु तथाप्रतिभासमानयोर्वैयधिकरण्यं, एकत्र फले रूपरसयोरपि तत्प्रसङ्गात् । ९ ३७४. संकरव्यतिकरावपि मेचकज्ञानदृष्टान्तेन निरसनीयौ । यथा मेचकज्ञानमेकमप्यनेकस्वभावं, न च तत्र संकरव्यतिकरौ, एवमत्रापि । कि च यथानामिकाया युगपन्मध्यमाकनिष्ठिकासंयोगे ह्रस्वदीर्घत्वे न च तत्र संकरादिदोषः एवमत्रापि ।
$ ३७५ तथा यदप्यवादि ' जलादेरप्यनलादिरूपता' इत्यादि; तदपि महामोहप्रमादिप्रलपितप्रायम्; यतो जलादे: स्वरूपापेक्षया जलादिरूपता न पररूपापेक्षया न ततो जलार्थिनामनलादौ प्रवृत्तिप्रसङ्गः, स्वपरपर्यायात्मकत्वेन सर्वस्य सर्वात्मकत्वाभ्युपगमात्, अन्यथा वस्तुस्वरूपस्यैवा
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षड्दर्शनसमुच्चये
घटमानत्वात् ।
६ ३७६. किं च, भूतभविष्यद्गत्या जलपरम णूनामपि भूतभाविवह्निपरिमाणापेक्षया वह्निरूपताप्यस्त्येव । तथा तप्तोदके कथंचिद्वह्निरूपतापि जलस्याङ्गीक्रियत एव । प्रत्यक्षादिबुद्धौ प्रतिहै । जिस तरह एक आम आदि फलमें रूप और रस जब स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं तो उनमें वैयधिकरण्य नहीं कहा जा सकता उसी तरह एक ही वस्तुमें जब सत्त्व और असत्वका साफ-साफ स्फुट अनुभव होता है तब उनमें वैयधिकरण्यदूषण देना किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता । $ ३७४. जिस प्रकार अनेक रंगोंका मिश्रित प्रतिभास करानेवाला मेचकरत्नका ज्ञान एक होकर भी अनेक स्वभाव या आकारवाला है पर उसके आकार न तो एक दूसरे रूप ही होते हैं और न सबकी युगपत् प्राप्ति ही होती है उसी तरह एक वस्तुको सत्त्व असत्त्व आदि अनेकधर्मवाली माननेपर भी संकर और व्यतिकर दूषण नहीं हो सकता । देखो छिंगुरीके पासकी अनामिका - बिना नामवाली अँगुली बोचवाली मध्यमा अंगुलीसे छोटी तथा कनिष्ठा - सबसे छोटी छिंगुरीसे बड़ी है, परन्तु उसमें एक साथ छोटापन तथा बड़ापन होने में संकर या व्यतिकर दूषण तो नहीं आता ? उसी तरह वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व दो धर्म माननेमें भी कोई दूषण नहीं है ।
$ ३७५. आपने जो 'जलमें भी अग्निरूपताका प्रसंग' दिया है, वह तो अत्यन्त तीव्र मोही - अज्ञानी के प्रलाप जैसा ही है, क्योंकि जल आदि पदार्थों में अपने जल स्वरूप आदिकी दृष्टिसे लादिरूपता है न कि अग्नि आदि पररूपकी अपेक्षासे । अतः जलार्थी - प्यासा अग्निको पीने के लिए क्यों दोड़ेगा ? पानी पानी रूपसे सत् है न कि अग्नि रूपसे । संसारकी समस्त वस्तुएँ किन्हीं पदार्थों के साथ स्वपर्याय रूपसे तथा किन्हीं पदार्थोंके साथ परपर्याय रूपसे सम्बन्ध रखती हैं अतः किसी से अस्तित्वरूप और किसीसे नास्तित्वरूप सम्बन्ध होने से सभी वस्तुएँ सर्वात्मक मानी जाती हैं । अन्यथा वस्तुकी व्यवस्था ही घट नहीं सकती । जलका अपनी शीतलता आदि के साथ यदि स्वपर्यायरूपसे अस्तित्वात्मक सम्बन्ध है तो अग्नि आदिके साथ परपर्यायरूपसे नास्तित्वात्मक सम्बन्ध भी तो है ।
$ ३७६. पुद्गलद्रव्यके विचित्र परिणमन होते हैं । जो परमाणु आज जलरूप हैं सम्भव है कि वे घड़ी-भर बाद आगरूप या हवारूप हो जाँय । इनके सदा जलरूप या अग्निरूप हो रहने का कोई नियम नहीं है । अतः बहुत कुछ सम्भव है कि यही अग्निके परमाणु जो आज जल हैं, पहले अरूप रहे हों या आगे अग्निरूपसे परिणत होंगे । इसलिए भूत और भविष्यत् अग्नि
१. - मानव - म. २ । २. "नापि सङ्कर व्यतिकरी, स्वस्वरूपेणैव अर्थे तयोः प्रतीयमानत्वात् । " न्याय कुमु. पृ. ३७१ । “ एकत्र बहुभेदानां संभवान्मेचकादिवत् ॥ " - न्यायविनि २।४५ । " यथा कल वर्णस्य यथेष्टं वर्णनिग्रहः ॥ ५७॥ चित्रत्वाद्वस्तुनोऽप्येदं भेदाभेदावधारणम् । यदा तु शवलं वस्तु युगपद्यते ॥ ६२॥ तदान्यानन्यभेदादि सर्वमेव प्रलीयते ||" मीमांसाइलो. आकृतिवाद । "एकानेकस्वभावात्मकत्वं मेचकस्य वा । कथं च एकस्य नरसिंहत्वम् उमेश्वरत्वं वा स्यात् ।”—न्यायकुसु• पू. ३६९ । ३. - दोषपोष एव-म. २ । ४. यत्तवो न जला - म. २ । ५. सर्वस्वार्थस्य भ. २ ।
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