SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - का० ५७. ६ ३७३ ] जैनमतम् । ३६३ णामनन्तत्वात् । एवं घटपटादिपदार्थानामपि स्वपररूपप्ररूपणा कार्या, तदपेक्षया च सत्त्वासत्त्वे प्रतिपाद्ये । एवं च वस्तुनः सत्त्वेऽपि सत्त्वासत्त्वकल्पनाया मनेकान्तोद्दीपनमेव, न पुनः कापि क्षि (क्ष) तिरति । $ ३७२. ननु सत्वेऽपि सत्त्वान्तरकल्पने 'धर्माणां धर्मा न भवन्ति' इति वचो विरुध्यते । मैवं वोचः | अद्याप्यनभिज्ञो भवान् स्याद्वादामृतरहस्थानां, यतः स्वधर्म्यपेक्षया यो धर्मः सत्त्वादिः स एव स्वधर्मान्तरापेक्षया धर्मी, एवमेवानेकान्तात्मकव्यवस्थोपपत्तेः । ततः सत्त्वेऽपि सत्त्वान्तरकल्पनायां सत्त्वस्य धर्मित्वं, सत्त्वान्तरस्य च धर्मत्वमिति धर्मिण एव धर्माभ्युपगमान्त पूर्वोक्तदोषावकाशः । न चैवं धर्मस्यापि धर्मान्तरापेक्षया धर्मत्व प्राप्त्यानवस्था, अनाद्यनन्तत्वाद्धर्मधर्मव्यवहारस्य दिवसरात्रिप्रवाहवत्, बीजाङ्कुरपौर्वापर्यंवत् अभव्य संसारवद्वा । एवं नित्यानित्यभेदाभेदादिष्वपि वाच्यम् । ६ ३७३. तथा वैयधिकरण्यमप्यसत्; निर्बाधकाध्यक्ष बुद्धौ सत्त्वासत्त्वयोरेकाधिकरणत्वेन है । इस तरह आगे-आगेके धर्मो के स्व- पररूपका समझदार पुरुषोंको स्वयं ही विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि इनके भेद-प्रभेद तो अनन्त हैं, जिसकी जितनी शक्ति और बुद्धि हो वह उतने हो स्व-पररूपकी कल्पना कर सकता है। इसी तरह घट-पट आदि पदार्थों के भी स्वरूप और पररूपका विचार करके उनसे सत्त्व और असत्वका निरूपण करना चाहिए। इस तरह वस्तुके सत्त्वधर्म में भी सत्व और असत्वकी कल्पना करनेसे अनेकान्तका उद्दोपन ही होता है इससे कोई हानि तो हो ही नहीं सकती । ९३७२ शंका - यदि सत्त्वधर्म में भी अन्य सत्त्व आदि कल्पना की जायेगी तो आपका 'धर्मो में अन्यधर्म नहीं होते' यह सिद्धान्त नष्ट हो जायेगा । समाधान- तुम आज तक भी स्याद्वादामृत के रहस्यको नहीं समझ सके हो इसका समझना गूढ़ है । बात यह है जो सत्त्व अपनी आधारभूत वस्तुको अपेक्षा धर्म है वही अपने में रहनेवाले अन्य धर्मोकी अपेक्षा धर्मी रूप भी होता है । इसी प्रकार हर एक वस्तु तथा वस्त्वंश में धर्मं और धर्मी रूपसे अनेकान्तात्मकता है। अतः सत्व भी अन्य सत्वधमंकी कल्पना करने से धर्मीरूप हो जाता है और दूसरा सत्त्व धर्मं रहता है, इस तरह जो धर्म था वही धर्मी तथा जो धर्मी है वही धर्म भी हो सकता है । जिस समय सत्त्वमें अन्य कोई धर्म रहता है उस समय वह धर्मरूप न होकर धर्मीरूप होता है । अतः कोई दोष नहीं है। सत्त्वधर्मको अन्य किसी धर्मकी अपेक्षा धर्मी मानने से अनवस्था दूषणकी शंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार दिवसके बाद रात्रि तथा रात्रि के बाद दिन अनन्तकाल तक बराबर होता रहता है अथवा जिस तरह बोजसे अंकुर और अंकुर से बीजकी परम्परा अनन्तकाल तक चलती है या जिस प्रकार अभव्यजीवके संसार में एक पर्यायके बाद दूसरी पर्याय क्रमशः अनन्तकाल तक होती जाती है ठीक उसी तरह अनादिसे अनन्तकाल तक धर्म-धर्मव्यवहारकी परम्परा चालू रहती है । जो ज्ञान जीवका धर्म है वही अपने में रहनेवाले सत्त्वकी अपेक्षा धर्मी है । सत्त्व ज्ञानकी अपेक्षा धर्म होकर भी अपने प्रमेयत्व की अपेक्षा धर्मी है । इस तरह धर्मधर्मिभाव अनादि अनन्त है । इसी तरह नित्य-अनित्य भेद - अभेद आदि धर्मोंको व्यवस्थाका विचार करना चाहिए । ६ ३७ ३. वैयधिकरण-भिन्न आधारोंमें रहना -दूषणको बात तो सरासर आंखों में धूल झोंकना है; क्योंकि निर्बाध प्रत्यक्षसे एक ही वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व दोनों ही धर्मोकी प्रतीति होती ही १. सत्त्वे सत्वा- म. २ । २. स्वधर्माप-भ. २ । ३. वस्योत्पत्तेः भ. २ । ४. - ति धर्मिण एव धर्मत्वमिति धर्मिण एव आ. क. । ५. "नापि वैयधिकरण्यम्, एकाधारतया निर्बंध बोधे तयोः प्रतिभासमानत्वात् । " न्यायकुमु. पू. ३०१ । अष्टसह. पू. २०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy