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३६२ षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ५७.६३७१"मूलक्षि(क्ष)तिकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणम् ।
वस्स्वानन्त्येऽप्यशक्ती च नानवस्थापि (स्था वि ) वार्यते ॥१॥" ततो यथा यथा सत्त्वेऽपि सत्त्वासत्त्वकल्पना विधीयते, तथा तथानेकान्तस्यैवोद्दीपनं ने तु मूलवस्तुक्षि(क्ष)तिः । तथाहि-इह सर्वपदार्थानां स्वरूपेण सत्त्वं पररूपेण चासत्त्वम् । तत्र जीवस्य तावत्सामान्योपयोगः स्वरूपं, तस्य तल्लक्षणत्वात्, ततोऽन्योऽनुपयोगः पररूपम्, ताभ्यां सदसत्त्वे प्रतीयेते। तदुपयोगस्यापि विशेषतो ज्ञानस्य स्वार्थाकारव्यवसायः स्वरूपं, दर्शनस्यानाकारग्रहणं स्वरूपं, तद्विपरीतं तु पररूपम्, ततस्ताभ्यां तत्रापि सत्वासत्त्वे । तथा पुननिस्यापि परोक्षस्यावैशचं प्रत्यक्षस्य वैशचं स्वरूपं, दर्शनस्यापि चक्षुरचक्षुनिमित्तं चक्षुराधालोचनं स्वरूपं, अवधिदर्शनस्थाप्यवध्यालोचनं स्वरूपं, अन्यच्च पररूपम् । ततस्ताभ्यां तत्रापि सत्त्वासत्वे । परोक्षस्यापि मतिज्ञानस्येन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं स्वार्थाकारग्रहणं स्वरूप, अनिन्द्रियमात्रनिमित्तं श्रुतस्य स्वरूपं, प्रत्यक्षस्यापि विकलस्यावधिमनःपर्यायरूपस्य मनोऽक्षानपेक्षं स्पष्टार्थग्रहणं स्वरूपं, सकलप्रत्यक्षस्य सर्वद्रव्यपर्यायसाक्षात्करणं स्वरूपं, ततोऽन्यत्पररूपम्। ताभ्यां पुनरपि तत्रापि सदसत्त्वे प्रतिपत्तव्ये । एवमुत्तरोत्तरविशेषाणामपि स्वपररूपे तद्वेदिभिरभ्यूह्ये, तद्विशेषप्रतिविशेषाहोता है वहीं अनवस्था दूषणरूप है। कहा भी है -"अनवस्था दूषण मूलवस्तुकी क्षति करनेवाला होता है इससे मूल वस्तुका ही लोप हो जाता है। परन्तु जहां वस्तुको अनन्तरूपता होनेके कारण हमारी बुद्धि थक जाय वह उसके अन्त तक न पहुंचे उस वस्तुकी अनन्ततामें अनवस्थाका विचार नहीं किया जा सकता। वस्तुको अनन्तताके कारण यदि अनवस्था है तो उसका वारण नहीं किया जाता वह तो भूषण है।" तो सत्त्वको वस्तुसे अभिन्न होनेके कारण वस्तु रूप मानकर उसमें जैसे-जैसे सत्त्व असत्त्व आदि धर्मोकी कल्पना की जायगी वैसे ही वैसे अनेकान्तका उद्दीपन-पुष्टि होगी। इसमें मूल वस्तुको क्षति न होकर उसके स्वरूपका सम्पोषण ही होगा। जैसे-सभी पदार्थों में स्वरूपसे सत्त्व तथा पररूपसे असत्त्व है। जीवका सामान्यसे ज्ञानदर्श नरूप उपयोग ही स्वरूप है; क्योंकि जीवका असाधारण लक्षण उपयोग ही है। उपयोगसे भिन्न अनुपयोग अचेतनत्व पररूप है। इन उपयोग और अनुपयोगसे सत्त्व और असत्त्वका विचार किया जाता है । उपयोगमें भी विशेषरूपसे ज्ञानोपयोगका स्वरूप है स्व और अर्थका निश्चय करना। दर्शनोपयोगका स्वरूप है निराकार सामान्य आलोचन करना । इनसे विपरीत धर्म पररूप होंगे। अतः इन दोनोंसे सत्त्व और असत्त्वका विचार किया जायगा। ज्ञानमें भी परोक्षका स्वरूप है अस्पष्टज्ञान तथा प्रत्यक्षका स्पष्टज्ञान । दर्शन में भी चक्षुदर्शनका स्वरूप है चक्षुरिन्द्रियसे होनेवाले ज्ञानके पहले पदार्थका सामान्य अवलोकन करना। अचक्षुदर्शनका स्वरूप है-चक्षुसे भिन्न स्पर्शनादि इन्द्रियोंसे होनेवाले ज्ञानके पहले सामान्य प्रतिभास करना। अवधिज्ञानके पहले होनेवाला सामान्य प्रतिभास अवधिदर्शन है । ये तो हुए इनके स्वरूप, और इनसे विपरीत धर्म पररूप होते हैं । इनसे इनमें सत्त्व और असत्त्वका विचार करना चाहिए। परोक्षमें भी मतिज्ञानका स्वरूप है इन्द्रिय और मनके द्वारा स्व और अर्थका निश्चय करना श्रुतज्ञानमात्र मनके निमित्तसे ही होता है। प्रत्यक्षमें भी अवधिज्ञान और मनःपर्याय रूप विकल प्रत्यक्षका स्वरूप है-इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना ही तत्तत् ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे ही पदार्थों को स्पष्ट जानना। समस्त द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको साक्षात् हस्तामलकवत् जानना सकलप्रत्यक्ष है। ये तो इनके स्वरूप हैं और इनसे भिन्न पररूप हैं ! इनके द्वारा इनमें फिर भी सत्त्व और असत्त्वका विचार होता
१. - वस्थेति वा. भ. २ । २. न मूल-भ. १, २, प. १, २, आ., क.। ३. व्योपयोगः भ. २ । ४. सत्त्वासत्त्वं म. १, २, प. १, २, क.। ५. चक्षुनिमित्तं चक्षुराद्यालो-म. १, प. १,२। चक्षुनिमित्तं चक्षुरालो-भ. २ । ६. -पर्यय म. २ ।
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