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________________ -का० ५७. ६ ३७१ ] जैनमतम्। ६ ३७०. तथा संशयोऽपि न युक्तः, सत्त्वासत्त्वयोः' स्फुटरूपेणैव प्रतीयमानत्वात् । अदृढप्रतीतौ हि संशयः, यथा क्वचित्प्रदेशे स्थाणुपुरुषयोः । तथा यदुक्तम् -'अनवस्था' इति तदप्यनुपासितगुरोर्वचः, यतः सत्त्वासत्त्वादयो वस्तुन एव धर्माः, न तु धर्माणां धर्माः, 'धर्माणां धर्मा न भवन्ति' इति वचनात् । न चैवमेकान्ताभ्युपगमादनेकान्तहानिः, अनेकान्तस्यै सम्यगेकान्ताविनाभावित्वात्, अन्यथानेकान्तस्यैवाघटनात् नयार्पणादेकान्तस्य प्रमाणार्पणादनेकान्तस्यैवोपदेशात्, तथैव दृष्टेष्टाभ्यामविरुद्धस्य तस्य व्यवस्थितेः। $ ३७१. किं च, प्रमाणार्पणया सत्त्वेऽपि सत्त्वासत्त्वकल्पनापि भवतु । न च तत्र कश्चनापि दोषः। ननूक्तमनवस्थेति चेत्, न, यतः साप्यनेकान्तस्य भूषणं न दूषणं, अमूलक्षि(क्ष)तिकारित्वेन प्रत्युतानेकान्तस्योद्दीपकत्वात्, मूलक्षि(क्ष)तिकरी ह्यनवस्था दूषणम् । यदुत्तम् 5 ३७०. वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व दोनों ही साफ-साफ रूपसे प्रतीत हो रहे हैं अतः संशय हो ही नहीं सकता। यदि इनकी दृढ़ प्रतीति न होकर चलित प्रतीति होती तो संशय कहा जा सकता था। जैसे किसी प्रदेशमें 'यह स्थाणु-ठूठ है या पुरुष' यह चलित प्रतीति संशय रूप हुआ करती है । अनवस्था नामका दूषण तो ऐसे व्यक्तिका दिया हुआ मालूम होता है जिसने गुरुके पास क ख भी नहीं पढ़ा है। सत्त्व और असत्त्व वस्तुके धर्म हैं धर्मों के धर्म नहीं हैं। कहा भी है-"धर्मों के धर्म नहीं होते, धर्म निर्धर्म होते हैं।" 'धर्म धर्मरूप हो है' इस एकान्तके माननेसे अनेकान्तको हानि नहीं हो सकती, क्योंकि अनेकान्त सच्चे एकान्तका अविनाभावो होता है। यदि सम्यगेकान्त न हो तो उनका समुदायरूप अनेकान्त ही नहीं बन सकेगा। नयकी दृष्टिसे एकान्त तथा प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्त माना जाता है। जो एकान्त-एकधर्म वस्तुके दूसरे धर्मोंको अपेक्षा करता है उनका निराकरण नहीं करता वह सच्चा एकान्त है यह सुनयका विषय होता है । जो एकान्त अन्य धर्मों का निराकरण करता है वह मिथ्या एकान्त है यह दुर्नयका विषय होता है । सम्यगेकान्तोंके समुदायको ही अनेकान्त-अनेकधर्मवाली वस्तु कहते हैं। यह अनेकान्तात्मक वस्तु प्रमाणका विषय होती है। प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा उक्त व्यवस्थामें कोई भी बाधा तो आती ही नहीं है प्रत्युत ये प्रत्यक्ष और अनुमान इस अनेकान्तके साधक ही हैं। $३७१. प्रमाणकी दृष्टिसे सत्व भी वस्तुसे अभिन्न होनेके कारण वस्तुरूप हो जाता है अतः उसमें भी सत्त्व और असत्त्वको कल्पना खुशीसे कीजिए हमें उसमें कोई आपत्ति नहीं है और न उसमें कोई दोष हो है । इस स्थितिमें अनवस्था दूषणकी बात कहना तो निरर्थक ही है; क्योंकि ऐसी अनवस्था-अनन्तधर्मोको कल्पना तो अनेकान्तकी साधक होनेसे भूषणरूप है न कि दूषण । यह अनन्तधर्मकल्पना रूप अनवस्था तो मूलवस्तुका नाश नहीं करने के कारण उलटी अनेकान्तका उद्दीपन ही करती है इससे अनेकान्तको पुष्टि ही होतो है । जहाँ मूल वस्तुका लोप १. "संशयहेतुरिति चेन्न, विशेष लक्षणोपलब्धः।" त. वा. पृ. ३ । अष्टसह. पृ. २०७ । न्यायकुमु. प, ३६ । २. "तत एव नानवस्था, स्थित्यात्मनि जन्मविनाशानिष्टे जन्मात्मनि स्थितिविनाशानागमाद्विनाशे स्थितिजन्मानवकाशात् प्रत्येकं तेषां भयात्मकत्वानु गमात् । न चैवमनेकान्ताम्धुपगमादने कान्ताभावः, सम्यगेकान्तस्पानेकान्तेन विरोधाभावात्, नयार्पणादेकान्तस्य प्रमाणार्पणादनेकान्तस्यैवोपदेशात् तथैव दृष्टेष्टाभ्यामविरुद्धस्य तस्य व्यवस्थितेः ।"--अष्टसह. पृ. २०७। ३. "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणान्ते तदेकान्तोऽपितानयात् ।"-वृ. स्व. श्लो. पृ. १०३ । त. वा. पृ. ३५। ४. प्रमाणादने-आ. क. । ५. सत्तासत्त्व-भ. २ । ६.-तिकारी क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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