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दर्शनसमुच्चये
[ का० ५७. १३७१ -
स्वरूपे तु सर्व चित्तचैतानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमिति वचनान्निविकल्पकत्वं च रूपद्वयमभ्युपगतवतां तेषां कथं नानेकान्तवादापत्तिः । तथा हिंसाविरतिदानादिचित्तं यदेव स्वसंवेदनगतेषु सत्त्वबोधरूपत्वसुखादिषु प्रमाणं तदेव क्षणक्षयित्वस्वर्गप्रापणशक्तियुक्तत्वादिष्व प्रमाणमित्यनेकान्त एव । तथा यद्वस्तु नीलचतुरस्रोर्ध्वतादिरूपतया प्रमेयं तदेव मध्यभागक्षणविवर्त्तादिनाप्रमेयमिति कथं नानेकान्तः । तथा सविकल्पकं स्वप्नादिदर्शनं वा यदबहिरर्थापेक्षया भ्रान्तं ज्ञानं तदेव स्वस्वरूपापेक्षयाभ्रान्तमिति बौद्धाः प्रतिपन्नाः । तथा यन्निशीथिनीनाथद्वयाधिकं द्वित्वेऽलीकं, तदपि धवल
ज्ञानों का स्वरूपसंवेदन प्रत्यक्ष - निर्विकल्पक होता है" अतः एक ही विकल्पज्ञानको बाह्य नीलादिकी अपेक्षा सविकल्पक तथा स्वरूपको अपेक्षा निर्विकल्पक इस तरह निर्विकल्पक और सविकल्पक दोनों ही रूप माननेवाले बौद्धोंने अनेकान्तवादको स्वीकार कर ही लिया है। उनका एक ही विकल्पको दो रूप मानना अनेकान्तवादके बिना कैसे हो सकता है ? इसी तरह वे अहिंसा रूप
क्षण प्रत्यक्षको अपनी सत्तामें प्रमाण रूप तथा स्वर्गप्राप्त करानेकी शक्ति में अप्रमाण रूप मानते हैं । हिंसासे विरक्त होकर अहिंसक बनना तथा दान देना आदि शुभ क्रियाओं में स्वर्ग पहुँचाने की शक्ति आगमसे प्रसिद्ध है, इनको बौद्ध क्षणिक भी मानते हैं । जिस समय कोई व्यक्ति किसीपर अहिंसा दया करके उसे कुछ दान देता है उस समयका अहिंसा और दानका प्रत्यक्ष अहिंसा आदिको सत्ता, उनकी ज्ञानरूपता तथा उनकी सुखरूपताका प्रत्यक्ष ही अनुभव कराता है तथा आगे 'मैंने दया की उससे सन्तोष या सुख हुआ' ऐसे अनुकूल विकलको उत्पन्न करने के कारण वह अहिंसा आदिकी सत्ता और सुखरूपतामें प्रमाण माना जाता है । अथवा अहिंसा और दान आदि स्वयं ज्ञानक्ष गरूप हैं अतः वे अपनी सत्ता ज्ञानरूपता तथा सुखरूपताका स्वयं ही अनुभव करनेके कारण उक्त अंशों में प्रमाण हैं । परन्तु अहिंसा आदिमें रहनेवाली स्वर्गप्रापणशक्तिमें तथा उसकी क्षणिकता में वह अहिंसा प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है । यद्यपि प्रत्यक्षसे उसकी क्षणिकता तथा स्वर्गप्रापण शक्तिका अनुभव हो जाता है परन्तु उनके अनुकूल 'ये क्षणिक हैं, ये स्वर्गप्रापक हैं' इत्यादि विकल्पों की उत्पत्ति न होनेके कारण प्रत्यक्ष इन अंशोंमें प्रमाण नहीं माना जाता । इस तरह एक ही अहिंसाक्षणको अपनी सत्ता आदिमें प्रमाणात्मक तथा स्वर्गप्रापणशक्ति या क्षणिकता में अप्रमाणरूप माननेवाले बौद्धोंने अनेकान्तको स्वीकार किया हो है । इसी तरह वे नीलादि वस्तुओं को नीलादिकी अपेक्षा प्रमेय तथा क्षणिकत्व आदिकी अपेक्षा अप्रमेय कहते हैं । जो नीलवस्तु अपने नीलेपन चौकोण और सामने दिखनेवाले ऊपरी आकार आदिकी दृष्टिसे प्रमेय हैं- प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय होता है वही अपने भीतरी अवयवोंकी दृष्टिसे तथा क्षणिकत्व आदि की अपेक्षा प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय नहीं होने से अप्रमेय है । इस तरह एक ही नीलादिको प्रमेय तथा अप्रमेय दो रूप मानना क्या अनेकान्त नहीं है ? इसी तरह वे स्वप्नादि भ्रान्तज्ञानको बाह्य पदार्थ की प्राप्ति न कराने के कारण भ्रान्त तथा स्वरूपकी दृष्टिसे अभ्रान्त मानते हैं । स्वप्न में 'मैं धनी हूँ, मैं राजा हूँ' इत्यादि विकल्प ज्ञान होते हैं । ये विकल्पज्ञान बाह्यमें धनीपन या राजापनका अभाव होनेसे जागनेपर कंगालीका अनुभव होनेसे भ्रान्त हैं, परन्तु वे अपने स्वरूपकी दृष्टिसे अभ्रान्त हैं। वैसे विकल्पज्ञान स्वप्न में हुए तो अवश्य ही हैं। इसी तरह सीपमें चाँदीका भान कराने वाली मिया विकल्प चाँदी रूप बाह्य अर्थका प्रापक न होनेसे भ्रान्त है परन्तु वैसा मिथ्याज्ञान हुआ तो अवश्य है, उसका स्वरूप संवेदन तो होता हो अतः वह स्वरूपकी दृष्टि से अभ्रान्त है । इस तरह एक ही मिथ्याविकल्पको बाह्य अर्थ में भ्रान्त तथा स्वरूपमें अभ्रान्त मानना स्पष्ट इसी तरह वे द्विचन्द्रज्ञानको द्वित्व अंश में विसंवादी होनेसे
है
ही अनेकान्तको स्वीकार करना है।
१. च भ. २ ।
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