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-का०५७.६३६६ ] जैनमतम्।
३५७ सत्त्वमसत्त्वात्मना असत्त्वं च सत्त्वात्मना व्यवस्थितं स्यात् तथा सत्त्वासत्त्वयोरविशेषात्प्रतिनियतव्यवहारोच्छेदः स्यात् । एवं नित्यानित्यादिष्वपि वाच्यम् । तथा सत्त्वासत्त्वात्मकत्वे वस्तुनोऽभ्यु. पगम्यमाने सदिदं वस्त्वसद्वैत्यवधारणद्वारेण निर्णीतेरभावात् संशयः। तथा येनांशेन सत्त्वं तेन किं सत्त्वमेवाहोस्वित्तेनापि सत्त्वासत्त्वम् । यद्याद्यः पक्षः, तदा स्याद्वादहानिः। द्वितीये पुनः येनांशेन सत्त्वं तेन कि सत्त्वमेवाहोस्वित्तेनापि' सत्त्वासत्त्वमित्यनवस्था। तथा येनांशेन भेदः तेन किं भेद एवाथ तेनापि भेदाभेदः। आये मतक्षतिः। द्वितीये पुनरनवस्था। एवं नित्यानित्यसामान्यविशेषादिष्वपि वाच्यम् । तथा सत्त्वस्यान्यदधिकरणमसत्त्वस्य चान्यदिति वैयधिकरण्यम् । तथा येन रूपेण सत्त्वं तेन सत्त्वमसत्त्वं च स्यादिति संकरः, 'युगपदुभयप्राप्तिः संकरः' इति वचनात् । तथा येन रूपेण सत्त्वं तेनासत्त्वमपि स्यात येन चासत्त्वं तेन सत्त्वमपि स्यादिति व्यतिकरः, 'परस्परविषयगमनं व्यतिकरः' इति वचनात् । तथा सर्वस्यानेकान्तात्मकत्वेऽङ्गीक्रियमाणे जलादेरप्यनलादिरूपता, अनलादेरपि जलरूपता, ततश्च जलाशेंनलादावपि प्रवर्तेत, अनलार्थी च और असत्त्वको स्थिति एक दूसरेका परिहार करके न मानी जाय, तो इसका यह अर्थ हुआ कि सत्व भी असत्त्व रूपसे तथा असत्त्व भी सत्त्व रूपसे रहता है, तब सत्त्व और असत्त्वमें एकरूपता होनेसे विद्यमानता तथा गैर मौजूदगीमें कोई भेद ही न रहेगा और इस तरह संसारके समस्त व्यवहारोंका लोप हो जायेगा 'है' भी 'नहीं' तथा 'नहीं' भी 'है' कहा जायेगा। इसी तरह मिथ्यात्व और अनित्यत्व आदिमें भी विरोध दूषण आता है। यदि वस्तु सत्त्वासत्त्वात्मक है तो 'उसका सत् या असत्' किसी भी रूपसे निर्णय नहीं हो सकता अतः 'वह सत् है या असत्' यह संशय हो जाता है । जिस स्वरूपसे वस्तु सत् है उस रूपसे क्या वह सत् ही है या उस रूपसे भी वह सत्त्व और असत्त्व दोनों ही धर्मवाली है ? यदि उस रूपसे सत् ही है; तब एकान्तवाद हो जायेगा और सर्वथा सत् ही माननेसे स्याद्वाद कहां रहा ? यदि जिस रूपसे सत् है उस रूपसे वह सदसत् दोनों ही धर्मवाली है। तो अनवस्था नामका दूषण होगा; क्योंकि वहां भी यही प्रश्न बराबर होता रहेगा कि वस्तु जिस रूपसे सत् है उस रूपसे सत् हो या सदसत् ? यदि सत् है तो स्याद्वाद हानि, यदि सदसत् है तो वही प्रश्न फिर होगा इस तरह अनेक अप्रामाणिक धर्मोको कल्पना करनेसे अनवस्था दूषण हो जाता है। इसी तरह जिस स्वरूपसे वस्तुमें भेद है उस स्वरूपसे वस्तुमें भेद ही है या भेद और अभेद दोनों ही ? यदि सर्वथा भेद ही माना जाय तो एकान्तवादका प्रसंग होनेसे स्याद्वादकी क्षति होगी। यदि भेद और अभेद दोनों हैं तो वही प्रश्न बराबर चालू रहेगा। इस तरह अनवस्था दूषण आता है। इसी तरह वस्तुको नित्यानित्यात्मक या सामान्यविशेषात्मक आदि मानने में भी अनवस्था दूषण आता है। सत्त्वधर्मका अन्य आधार होना चाहिए तथा असत्त्वधर्मका अन्य । इस तरह इन विरोधीधर्मोको एक आधारमें न रह सकनेके कारण वैयधिकरण्य दूषण होता है। वस्तुका सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्मोसे आप कथंचित्तादात्म्य मानते हैं, अतः जिस रूपसे वस्तुमें सत्त्व है उस रूपसे उसमें सत्त्व भी होगा तथा असत्त्व भी। इस तरह एक ही रूपसे दोनों धर्मोंकी युगपत् प्राप्ति होनेसे संकर नामका दूषण होगा। कहा भी है-"दोनों धर्मोकी एक साथ प्राप्तिको संकर कहते हैं" जिस रूपसे वस्तुमें सत्त्व है उस रूपसे असत्त्व भी होगा तथा जिस रूपसे वस्तु असत् है उस रूपसे सत् भी होगी इस तरह व्यतिकर दूषण होता है। कहा भी है-"एक दूसरेके विषयमें हस्तक्षेप करनेको व्यतिकर कहते हैं" सत्त्वके विषयमें असत्त्व तथा असत्त्वके विषयमें सत्त्वके भी पहुंच जानेसे व्यतिकर दोष स्पष्ट ही है। सभी वस्तुओंको अनेक धर्मवाली माननेसे जल में भी अग्निरूपता तथा अग्निमें भी जलरूपताका प्रसंग होगा।
१. होस्वित्सत्त्वा-म. २। २. तेन भेद-म. १, २, प. १, २। ३. -ता ततश्च म. २ । ४. प्रवर्तते भ. ।
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