SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - का० ५७. १३६५ ] जैनमतम् । ३५५ $ ३६५. न चात्र स्वरूपासिद्धो हेतु:, तथैवास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानत्वस्य सर्वत्र वस्तुनि विद्यमानत्वात् । न हि द्रव्यपर्यायात्मकाभ्यामेकानेकात्मकस्य नित्यानित्यात्मकस्य च स्वरूपपररूपाभ्यां सदसदात्मकस्य सजातीयेभ्यो विजातीयेभ्यश्चानुवृत्तव्यावृत्तरूपाभ्यां सामान्यविशेषात्मकस्य स्वपरपर्यायाणां क्रमेणाभिलाप्यत्वेन युगपतेषामनभिलाप्यत्वेन चाभिलाप्यानभिलाप्यात्मकस्य च सर्वस्य पदार्थस्यास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानत्वं कस्यचिदसिद्धम् । तत एव न " संदिग्ध सिद्धोऽपि न खल्वबाधकतया प्रतीयमानस्य वस्तुनः संदिग्धत्वं नाम । नापि विरुद्धः, विरुद्धार्थ साधकत्वाभावात् । न हि साङ्ख्यसौगताभिमतद्रव्यैकान्तपर्यायैकान्तयोः काणादयोगाभ्युपगतपरस्परविविक्तद्रव्यपर्यायैकान्ते च तथैवास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानत्वमास्ते, येन विरुद्धः स्यात् । नापि पक्षस्य प्रत्यक्षादिबाधा, येन हेतोरकिंचित्करत्वं स्यात् । नापि दृष्टान्तस्य साध्यविकलता साधनविकलता वा, न खलु घटस्यैकाने का विधर्मात्मकत्वम् तथैवास्खलत्प्रत्ययप्रतीयमानत्वं "चासिद्धं प्रागेव दशितत्वात् । तस्मादनवद्यं प्रयोगमुपश्रुत्य किमित्यनेकान्तो नामन्यते । । ६ ३६५. हमारा हेतु स्वरूपसे असिद्ध नहीं है, क्योंकि अनेकान्तात्मक रूप से समस्त वस्तुओंका निर्बाध प्रतिभास होता ही है । द्रव्यरूपसे वस्तु नित्य तथा एक है और पर्याय रूपसे अनित्य तथा अनेक । स्वरूप स्वक्षेत्र आदिकी दृष्टिसे वस्तु सदात्मक है तथा पररूप या परक्षेत्र आदिकी दृष्टिसे असदात्मक सजातीय पदार्थोंमें एक जेसा अनुगत प्रत्ययका कारण होनेसे सामान्यात्मक तथा विजातीय पदार्थोंसे व्यावृत्त प्रत्ययका कारण होनेसे विशेषात्मक है । स्वपर्यायें या परपर्यायें क्रमसे तो शब्दोंके द्वारा कही जा सकती हैं अतः वस्तु अभिलाप्य - वाच्य है तथा उनको एक साथ कहनेवाला कोई शब्द नहीं है इसलिए वस्तु अवाच्य है । इस तरह वस्तुके नित्यअनित्य आदि अनेकधर्म निर्बाध प्रतीतिके विषय होते ही हैं। इनकी निर्बाधता किसी से छिपी हुई नहीं है, वह तो सर्व प्रसिद्ध है । चूँकि उक्त प्रतीति निर्वाधरूपसे सर्वजन प्रसिद्ध है अतः उसमें सन्देह पैदा नहीं किया जा सकता इसीलिए हमारा हेतु सन्दिग्धसिद्ध नहीं है । निर्बाधप्रतीति में सन्देहका क्या काम ? हमारा हेतु साध्यसे उलटे अर्थको सिद्ध नहीं करता अतः विरुद्ध भी नहीं है । सांख्यके द्वारा माने गये द्रव्यैकान्त--सर्वथानित्यत्व, बौद्धोंके द्वारा माने गये पर्यायैकान्त सर्वथा क्षणिकत्व तथा वैशेषिक और नैयायिकोंके द्वारा स्वीकृत द्रव्य - पर्याय - सामान्य और द्रव्य गुण कर्म आदि सर्वथा भेदका तो कभी भी अनुभव नहीं होता जिससे हमारा अनेकान्तात्मक वस्तुको सिद्ध करनेवाला हेतु विरुद्ध कहा जाय । हमारा अनेकान्तात्मक रूप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे बाधित नहीं है जिससे हेतु बाधित होकर अकिंचित्कर कहा जाय । हमारा घट नामका दृष्टान्त भी साध्यशून्य या साधनशून्य नहीं है। एक-अनेक आदि अनेक धर्मवाला घड़ा जिस प्रकार निर्बाध प्रतीतिका विषय होता है वह प्रक्रिया पहले बता ही चुके हैं। इस तरह इस निर्दोष अनुमानके द्वारा जब निर्बाधरूप से वस्तुकी अनेकान्तात्मकता सिद्ध हो जाती है तब आप प्रामाणिक होनेका दावा रखकर भी उसे क्यों नहीं स्वीकार करते ? १. द्रव्यपर्ययाम्या - म. २ । द्रव्यपर्यायात्मभ्या-भ. १ प १ २ । २. स्य च नि-भ, २ । ३ - पर्ययाभ. २ । ४. क्रमेणाभिलाप्यानभिलाप्यत्वेन युगपत्तेषामभिलाप्यानभिलाप्यात्म म २ । ५. स्य सर्व-क्र. । ६. सन्दिग्धोऽसिद्धोऽपि भ २ । ७. पर्ययै भ. २ । ८. - मस्ति येन भ. २ । ९ - द्वस्यात्मनोऽपि पक्षस्य म. २ । १०. वा सिद्धं म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy