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३५४ षड्दर्शनसमुच्चये
[का. ५७. ६३६३तदभिन्नस्य धर्मिणोऽप्यसत्त्वप्रसङ्गात्।
___$ ३६३. न च धर्मिणः सकाशादेकान्तेन भिन्ना एवाभिन्ना एव वा धर्माः, तथानुपलब्धः, कथंचित्तदभिन्नानामेव तेषां प्रतीतेश्च ।
६३६४. न चोत्पद्यमानविपद्यमानतत्तद्धर्मसद्भावव्यतिरेकेणापरस्य धर्मिणोऽसत्त्वमेवेति वक्तव्यं, धाधारविरहितानां केवलधर्माणामनुपलब्धेः, एकधाधाराणामेव च तेषां प्रतीतेः, उत्पद्यमानविपद्यमानधर्माणामनेकत्वेऽप्येकस्य तत्तदनेकधर्मात्मकस्य द्रव्यरूपतया भ्रवस्य धर्मिणोडबाधिताध्यक्षगोचरस्यापह्नोतुमशक्यत्वात्, अबाधिताध्यक्षगोचरस्यापि धर्मिणोऽपह्नवे सकलधर्माणामपह्नवप्रसङ्गात् । तथा च सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरिति सिद्धमनन्तधर्मात्मकं वस्तु । प्रयोगश्चात्रविवादास्पदं वस्त्वेकानेकनित्यानित्यसदसत्सामान्यविशेषाभिलाप्यनभिलाप्यादिधर्मात्मकं, तथैवास्ख. लत्प्रत्ययेन प्रतीयमानत्वात्, यद्यथैवास्खलत्प्रत्ययेन 'प्रतीयमानं तत्तथैव प्रमाणगोचरतयाभ्युपगन्तव्यम् यथा घटो घटरूपतया प्रतीयमानो घटतयैव प्रमाणगोचरोऽभ्युपगम्यते न तु पटतया, तथैवास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानं च वस्तु, तस्मादेकानेकाद्यात्मकं प्रमाणगोचरतयाभ्युपगन्तव्यम् । तो उससे अभिन्न कालत्रयवर्ती अनन्तधर्म भी कथंचित् शक्तिरूपसे सदा रहते हैं। यदि धर्मोंका त्रैकालिक सत्त्व न माना जाय तो धर्मों के अभावसे उससे अभिन्न धर्मीका भी अभाव हो जायेगा।
३६३. धर्म न तो धर्मीसे सर्वथा अभिन्त ही हैं और न सर्वथा भिन्न ही। धर्मीसे सर्वथा या अभिन्न धर्म किसी भी प्रमाणसे उपलब्ध नहीं होते। प्रमाण तो धर्म और धर्मी में कथंचिद् भेदको ही ग्रहण करता है। धर्मीको छोड़कर स्वतन्त्र धर्म कहीं नहीं मिलते और न धर्मोंसे शून्य धर्मी ही । धर्मधात्मक वस्तु ही सदा प्रमाणका विषय होती है।
६३६४. बौद्ध-उत्पन्न होनेवाले तथा विनष्ट होनेवाले धर्मोंको छोड़कर किसी अतिरिक्त धर्मीका सद्भाव नहीं है। धर्म ही प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं तथा विनष्ट होते रहते हैं। उन धर्मों में रहनेवाला कोई स्थायी या अन्वय रखनेवाला धर्मी नहीं है।
. जैन-धर्मीरूप आधारके बिना निराधार धर्मोकी उपलब्धि नहीं होती। धर्म किसी न किसी आधारभूत धर्मीमें ही प्रतीत होते हैं। यद्यपि उत्पन्न तथा विनष्ट होनेवाले धर्मी अनेक-भिन्न या अनित्य हैं फिर भी उन अनेकधर्मोंका आधारभूत धर्मी द्रव्यरूपसे एक अभिन्न और नित्य है । ऐसा धर्मी प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका निर्बाध रूपसे विषय होता है, उसका लोप करना असम्भव है । यदि प्रत्यक्ष सिद्ध निर्बाध धर्मीका भी लोप किया जाय, तो इसी न्यायसे समस्तधर्मोंका भी लोप हो जायेगा और इस तरह धर्म और धर्मी दोनोंका लोप होनेसे संसारके समस्त प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि व्यवहारोंका उच्छेद हो जायेगा । 'घड़ा ही उत्पन्न या विनष्ट होता है' इस प्रतीतिमें उत्पाद और विनाशका आधार घटरूप धर्मी अनुभवसिद्ध है ही। इस तरह समस्त पदार्थ अनेकान्तात्मक या अनन्तधर्मवाले सिद्ध हो जाते हैं। प्रयोग-संसारके समस्त विचाराधीन पदार्थ एक-अनेक नित्य-अनित्य सत्-असत् सामान्य-विशेष वाच्य-अवाच्य आदि रूपसे अनेकधर्मात्मक हैं; क्योंकि वे अनन्तधर्मात्मक रूपसे ही निधि प्रतोतिके विषय होते हैं। जो पदार्थ जिस रूपसे निर्बाध प्रतीतिका विषय होता है वह उसी रूपसे प्रमाणका विषय होता है जैसे घटरूपसे निर्बाध प्रतीतिमें प्रतिभासित होनेवाला घड़ा घटरूपसे ही प्रमाणका विषय होता है न कि पटरूपसे। चूँकि नित्य-अनित्य एक या अनेक आदि रूपसे ही समस्त पदार्थों का निर्बाध प्रतिभास होता है अतः समस्त वस्तुओंको एक-अनेक आदि अनेकान्तात्मक रूपसे ही प्रमाणका विषय मानना चाहिए।
१. घाधा-म.२। एकधर्माधा-क.। २. प्रतीयते तत्त-म.२।
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