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________________ ३५३ -का० ५७. ६३६२] जैनमतम् । ६३६१. अथ येनेति शब्दो योज्यते। येन कारणेनोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिष्यते, तेन कारणेन मानयोः प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाणयोर्गोचरो विषयः। अनन्तधर्माः स्वभावाः सत्त्वज्ञेयत्वप्रमेयत्ववस्तुत्वादयो यस्मिन् तदनन्तधर्मकमनन्तपर्यायात्मकमनेकान्तात्मकमिति यावत् । वस्तुजीवाजीवादि, उक्तमभ्यधायि । अयं भावः-यत एवोत्पादावित्रयात्मकं परमार्थसत्, तत एवानन्त. धर्मात्मकं सर्व वस्तु प्रमाणविषयः, अनन्तधर्मात्मकतायामेवोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकताया उपपत्तेः, अन्यथा तदनुपपत्तेरिति । . ३६२. अत्रानन्तधर्मात्मकस्यैवोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वं युक्तियुक्ततामनुभवतीति ज्ञापनायैव भूयोऽनन्तर्धेमकपदप्रयोगो न पुनः पाश्चात्यपद्योक्तेनानन्तधर्मकपदेनात्र पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयमिति । तथा च प्रयोगः-अनन्तधर्मात्मकं वस्तु, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वात्, यवनन्तधर्मात्मकं न भवति तदुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकमपि न भवति, यथा वियदिन्दीवरमिति व्यतिरेक्यनुमानम् । अनन्ताश्च धर्मा यथैकस्मिन् वस्तुनि भवन्ति, तथा प्रागेव दर्शितम् । धर्माश्चोत्पद्यन्ते व्ययन्ते च, धर्मी च द्रव्यरूपतयाँ सदा नित्यमवतिष्ठते । धर्माणां धर्मिणश्च कथंचिदनन्यत्वेन धर्मिणः सदा सत्त्वे कालत्रयतिधर्माणामपि कथंचिच्छक्तिरूपतया सदा सत्त्वं अन्यथा धर्माणामसत्त्वे कथंचियदि अर्थक्रिया स्वतः सत् हो तो पदार्थ भी स्वतः सत् हो जायें' इत्यादि दूषण आते हैं। इन लक्षणोंका विस्तृत खण्डन अन्य ग्रन्थोंमें देख लेना चाहिए। ३६१. अब श्लोकके 'येन' शब्दका सम्बन्ध मिलाते हैं-जिस कारणसे वस्तुको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाली मानकर सत् मानते हैं उसी कारणसे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही प्रमाणोंके विषय अनन्त धर्मवाले जीवादिपदार्थ कहे गये हैं। जिसमें अनन्त धर्म सत्त्व ज्ञेयत्व प्रमेयत्व वस्तुत्व आदि स्वभाव पाये जाते हैं वह अनन्त धर्मक अनन्त पर्यायात्मक या अनेका कान्तात्मक कहा जाता है। तात्पर्य यह कि-जिस कारण उत्पादादि तीन धर्मवाली ही वस्तु परमार्थसत् है इसीलिए सभी वस्तुएं अनन्तधर्मवाली हैं और वे ही प्रमाणके विषय होती हैं । वस्तुको अनन्तधर्मवाली माननेपर ही उसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य घट सकते हैं। यदि वस्तु अनेक धर्मवाली न हो, नित्य या क्षणिक किसी एक रूपवाली हो; तो उसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य नहीं बन सकते । सर्वथा नित्यमें उत्पाद और व्यय नहीं हो सकते तथा क्षणिक स्थिरता-ध्रौव्य नहीं बन सकता। नित्यत्व क्षणिकत्व आदि अनन्तधर्मवाली वस्तुमें ही उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता निर्बाध युक्तियोंसे सिद्ध होता है। ३६२. इसी अनन्तधर्मात्मकताका उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकतासे अविनाभाव बतानेके लिए इस श्लोकमें भी 'अनन्तधर्मात्मक' पदका प्रयोग किया है। इसलिए पहलेके श्लोकमें कहे गये 'अनन्तधर्मात्मक' पदके कारण इस पदको पुनरुक्त नहीं कहना चाहिए; क्योंकि यहां वह उत्पादादित्रयात्मकके साथ अविनाभाव सूचनके लिए प्रयुक्त हुआ है और इसीलिए वह सार्थक है। प्रयोग-समस्त वस्तुएं अनन्तधर्मवाली हैं क्योंकि उनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाये जाते हैं। जो अनन्तधर्मवाले नहीं हैं उनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी नहीं पाये जाते जैसे कि आकाशके कमलमें । यह केवल व्यतिरेको अनुमान वस्तुको निर्विवाद रूपसे अनन्तधर्मवाली सिद्ध कर देता है । जिस-जिस तरह एक वस्तुमें अनन्तधर्म सिद्ध होते हैं वे प्रकार पहले बता चुके हैं । धर्मस्वभाव-पर्याय उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं तथा धर्मी द्रव्य या स्वभाववान् पदार्थ द्रव्यरूपसे स्थिर रहता है, नित्य है । धर्म और धर्मीमें कथंचिद् अभेद है, अतः जब धर्मी सदा स्थायी है नित्य है १.-ज्ञेयत्ववस्तु भ.२ २.-पर्यया-भ २। ३. वस्तु विषयः म.। ४.-धर्मात्मकपद-आ.। ५.-मनियमिति भ, २। ६. धर्मी द्रव्य-म. २। ७. -या नित्य-म. १, २, पं. १, २। ८. कथंचिदभि-म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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