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________________ ३५२ षड्दर्शनसमुच्चये [का. ५७.६३६० - ३६०. यथा हि वस्तु सर्वैः प्रतीयते तथा चेन्नाभ्युपगम्यते, तदा सर्ववस्तुव्यवस्था कदापि न भवेत् । अतो यथाप्रतीत्यैव वस्त्वस्त्विति । अत एव यद्वस्तु नष्टं तदेव नश्यति नक्ष्यति च कथंचित्, यदुत्पन्नं तदेवोत्पद्यत उत्पत्स्यते च कथंचित्, यदेवं स्थितं तदेव तिष्ठति स्थास्यति च कथंचित् । तथा यदेव केनचिद्रूपेण नष्टं तदेव केनचिद्रूपेणोत्पन्न केनचिद्रूपेण स्थितं च, एवं यदेव नश्यति तदेवोत्पद्यते तिष्ठति च, यदेव नक्ष्यति तदेवोत्पत्स्यते स्थास्यति चेत्यादि सर्वमुपपन्नम् । अन्तर्बहिश्च सर्वस्य वस्तुनः सर्वदोत्पादादित्रयात्मकस्यैवाबाधिताध्यक्षेणानुभूयमानत्वात्, अनुभूयमाने च वस्तुनः स्वरूपे विरोधासिद्धेः, अन्यथा वस्तुनो रूपरसादिष्वपि विरोध. प्रसक्तेः । प्रयोगश्चाऽत्रायम्-सर्व वस्तूत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं, सत्त्वात्, यदुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं न भवति तत्सदपि न भवति, यथा खरविषाणम्, तथा चेदम, तस्मात्तथेति केवलव्यतिरेकानुमानम् । अनेन च सल्लक्षणेन नैयायिकादिपरिकल्पितः सत्तायोगः सत्त्वं बौद्धाभिमतं चार्थक्रियालक्षणं सत्वं द्वे अपि प्रतिक्षिप्ते द्रष्टव्ये । तन्निरासप्रकारश्च ग्रन्थान्तरादवसातव्यः। ३६०. जैसी वस्तु सर्वसाधारणके अनुभव में आती है यदि वैसी न मानी जाय तथा स्वेच्छासे उसमें अप्रतीत स्वरूपकी कल्पना की जाय तो संसारकी सारी व्यवस्था ही नष्ट हो जाये. कल्पना तो जलको गरम तथा अग्निको ठण्डा माननेको भी की जा सकती है, कल्पनापर कोई अंकुश तो है ही नहीं। अतः वस्तुकी जब जिस प्रकारको निर्बाध प्रतीति हो उस समय उसे उसी ही प्रकारकी माननी चाहिए। इसलिए जो वस्तु पहले नष्ट हुई थी वही आज नाशको प्राप्त कर रही है तथा आगे भी कथंचित्-पर्यायरूपसे नष्ट होगी। जो उत्पन्न हुई थी वही उत्पन्न हो रही है तथा आगे भी कथंचित्-पर्यायरूपसे उत्पन्न होगी। जो स्थिर थी वही स्थिर है तथा आगे भी द्रव्यरूपसे कथंचित् स्थिर रहेगी। जो वस्तु किसी रूपसे नष्ट हुई थी वही किसी अन्यरूपसे उत्पन्न हुई थी तथा वही किसी रूपसे स्थिर थी जो किसी रूपसे नष्ट हो रही है वही किसी अन्य रूपसे उत्पन्न हो रही है तथा किसी रूपसे स्थिर है। जो किसी रूपसे नष्ट होगी वही किसी अन्यरूपसे उत्पन्न होगी तथा किसी रूपसे स्थिर रहेगी। इत्यादि त्रिकालवर्ती वस्तुको उत्पादादि त्रयात्मकता युक्ति सिद्ध हो जाती है। संसारकी समस्त चेतन और अचेतन वस्तुओंका सदा उत्पादादि त्रयात्मक रूपसे ही निर्बाध प्रत्यक्षसे अनुभव होता है जब वस्तु उत्पादादि त्रयात्मक रूपसे अनुभवमें आ रही है तब उसमें विरोधको शंका भी नहीं हो सकती। वस्तुका स्वरूपसे तो विरोध हो ही नहीं सकता, अन्यथा घड़का अपने रूप-रस आदि प्रतोतिसिद्ध धर्मोसे भी विरोध होना चाहिए। प्रयोग-समस्त वस्तुएँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाली हैं, क्योंकि वे सत् हैं। जो उत्पादादि धर्मवालो नहीं है वह सत् भी नहीं है जैसे कि गधे का सोंग। चूंकि संसारको समस्त वस्तुएं सत् हैं अतः वे उत्पादवमेवाली हैं। यह केवल व्यतिरेकी अनुमान वस्तुको उत्पादादित्रयात्मक सिद्ध कर देता है । सत्त्वके इस उत्पादादित्रयात्मकत्व रूप लक्षणसे नैयायिक आदिके द्वारा माना गया सत्ताका सम्बन्ध रूप सत्त्वका लक्षण तथा बौद्धके द्वारा माना गया अर्थक्रिया रूप सत्त्वका लक्षण दोनों हो खण्डित हो जाते हैं। क्योंकि इन लक्षणोंमें 'सत्ता सम्बन्ध सत् पदार्थ में माना जाय या असत्में' इत्यदि दूषण तथा 'अर्थक्रियामें सत्ता यदि अन्य अर्थक्रियासे मानो जाय तो अनवस्था १. "तस्मादयमुत्पित्सुरेव विनश्यति, नश्वर एव तिष्ठति, स्थास्तुरेवोत्पद्यते, स्थितिरेवोत्पद्यते, विनाश एव तिष्ठति, उत्तिरेव नश्यति, स्थितिरेव स्यास्यत्युत्सत्स्यते विनयति, विनाश एव स्यास्यत्युत्पत्स्यते विनक्ष्यति, उत्पत्तिरेवोत्पत्स्यते विक्ष्यति स्थास्यतीति न कुतश्विदुपरमति ।"-अष्टश. अष्टसह. पृ. ५१२ । २. "किमिदं कार्यत्वं नाम । स्वकारणसत्तासंबन्धः, तेन सत्ता कार्यमिति व्यवहारात् ।"प्रश. यो. पृ. १२९ । ३. "अर्थक्रियासमथं यत् तदत्र परमार्थसत् ।"-प्र. वा. १३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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