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________________ -का० ५७. ६ ३५९] जैनमतम् । ३५१ ६३५९. यदि देशेनेति पक्षः; तदा 'घटस्यैकदेश एव विनश्येत् न तु सर्वः, सर्वश्च स विनष्टस्तदा प्रतीयते, न पुनर्घटस्यैकदेशो भग्न इति प्रतीतिः कस्यापि स्यात्, अतो न देशेनेति पक्षः कक्षीकारार्हः । सामस्त्येन विनश्यतीति पक्षोऽपि न; यदि हि सामस्त्येन घटो विनश्येत, तदा घटे विनष्टे कपालानां मृदूपस्य च प्रतीतिर्न स्यात्, घटस्य सर्वात्मना विनष्टत्वात् । न च तदा कपालानि मृद्रूपं च न प्रतीयन्ते, मार्दान्येतानि कपालानि न पुनः सौवर्णानीति प्रतीतेः, अतः सामस्त्येनेत्यपि पक्षो न युक्तः । ततो बलादेवेदं प्रतिपत्तव्यं घटो घटात्मना विनश्यति कपालात्मनोत्पद्यते मृद्रव्यात्मना तु ध्रुव इति । ___ तथा घटो यदोत्पद्यते, तदा कि देशेनोत्पद्यते, सामस्त्येन वा ? इत्यपि परः प्रष्टव्योऽस्ति । यदि देशेनेति वक्ष्यति; तदा घटो देशेनैवोत्पन्नः प्रतीयेत न पुनः पूर्ण इति । प्रतीयते च घटः पूर्ण उत्पन्न इति। ततो देशेनेति पक्षोन मोदक्षमः। नापि सामस्त्येनेति पक्षः। यदि सामस्त्येनोत्पन्न: स्यात्, ततो मृदः प्रतीतिस्तदानीं न स्यात्, न च सा नास्ति, मार्दोऽयं न पुनः सौवर्ण इत्येवमपि प्रतीतेः। ततो घटो यदोत्पद्यते तदा स घटात्मनोत्पद्यते मृत्पिण्डात्मना विनश्यति मृदात्मना च ध्रुव इति बलादभ्युपगन्तव्यं स्यात् । ६३५९. यदि वस्तु प्रयात्मक नहीं है, तो उन न माननेवाले प्रतिवादियोंसे पूछना चाहिए कि-जब घड़ा नष्ट होता है तब वह एकदेशसे कुछ नष्ट होता है या सर्वदेशसे पूराका पूरा ? यदि घड़ा एकदेशसे नष्ट होता है; तो पूरे घड़ेका नाश न होकर उसके एकदेशका ही नाश होना चाहिए। पर हम तो घड़ेको समूचाका समूचा पूरा ही नष्ट हुआ पाते हैं । ऐसा तो कोई भी नहीं कहता कि'घड़ेका एक हिस्सा फूटा है।' इसलिए घड़ेका एकदेशसे नाश मानना तो उचित नहीं है। यदि घड़ा पूरा ही सर्वदेशसे नष्ट होता है; तो घड़ेके नाश होनेपर मिट्टी और खपरियां नहीं मिलनी चाहिए; क्योंकि आप तो घड़ेका पूरे रूपसे अर्थात् मिट्टी और खपरियों आदिके साथ ही साथ सर्वात्मना नाश मानते हैं। पर घड़ेके नष्ट होते हो. मिट्टी और खपरियां वहीं पड़ी हुई मिलती ही हैं। उस समय देखनेवाले कहते हैं कि 'ये मिट्टीको खपरियां हैं न कि सुवर्णकी। इसलिए जब घड़ेके नाश होनेपर मिट्टी और खपरियोंका नाश नहीं होता तब घड़ेका सर्वात्मना पूरे रूपसे नाश मानना भी समुचित नहीं है । अन्तमें अनन्यगतिक हो-और कोई तीसरा रास्ता न मिलनेके कारण आपको यह मानना ही होगा कि-'घड़ा घटरूप पर्यायकी दृष्टि से नष्ट होता है उससे खपरियां उत्पन्न होती हैं। तथा मिट्टी ज्योंकी त्यों स्थिर रहती है। मिट्टी पहले भी थी अब भी है उसकी घटपर्याय नष्ट हुई तथा खपरियां उत्पन्न हुई हैं। इसो तरह हम पूछेगे कि जब घड़ा उत्पन्न होता है तब वह एकदेशसे कुछ उत्पन्न होता है या सर्वदेशसे पूराका पूरा? यदि एकदेशसे उत्पन्न होता है; तो उसका कुछ हिस्सा ही उत्पन्न होना चाहिए पूरा घड़ा नहीं। परन्तु घड़ा तो समूचा उत्पन्न होता है यह सर्वलोक प्रसिद्ध है। इसलिए एकदेशसे घड़ेकी उत्पत्ति मानना तो उचित नहीं है। यदि पूरे रूपसे उत्पन्न होता है तो इसका अर्थ यह हआ कि उसकी मिटो भी उत्पन्न होती है। परन्तु यदि मिट्टी के साथ ही साथ घड़ा पूरे रूपसे उत्पन्न होवे, तो उस मिट्टोको प्रतीति नहीं होनी चाहिए। 'उस समय वह मिट्टी नहीं है' यह तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'यह मिट्टीका घड़ा है न कि सुवर्णका' यह प्रतीति सभी प्राणियोंको होती है। अतः घड़ा जब उत्पन्न होता है तब वह घड़ेकी पर्यायमें उत्पन्न होता है मिट्टीके पिण्ड रूपसे नष्ट होता है तथा मिट्टी द्रव्यके रूपमें ध्रुव-स्थिर रहता है' यह मानना ही पड़ेगा। इस त्रयात्मकताके बिना व्यवहार चल ही नहीं सकता। १. इति कस्यापि प्रतीतिः स्यात् भ. ३ । २. यदि सा भ. २ । ३. ततो यदा घट उत्प-भ.।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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