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________________ ३५० षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५७.६३५८"प्रध्वस्ते कलशे शुशोच तनया मौलो समुत्पादिते पुत्रः प्रीतिमुवाह कामपि नृपः शिश्राय मध्यस्थताम् । पर्वाकारपरिक्षयस्तदपराकारोदयस्तददया धारश्चैक इति स्थितं त्रयमयं तत्त्वं तथाप्रत्ययात् ॥" घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वलम् [ध्वयम् ] । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् । पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ॥" [आप्तमी. श्लो. ५९-६०] परो हि वादीदं प्रष्टव्यः। यदा घटो विनश्यति तदा कि देशेन विनश्यति, आहोस्वित्सामस्त्येनेति । उत्पादादि सत् हो सकते हैं तथा वस्तुमें भी इनकी परस्पर सापेक्ष हो सत्ता है। बात यह है कि उत्पाद, विनाश और स्थिति इन तीनोंसे युक्त ही वस्तु सत् होती है। यदि उत्पाद आदि विनाश आदि धर्मोंसे रहित हो जायें तो वे सत् ही नहीं हो सकते। इस तरह उत्पाद आदिको परस्पर सापेक्ष होनेसे वस्तु त्रयात्मक सिद्ध हो जाती है। कहा भी है-"एक राजाने सोनेके कलशको तुड़वाकर मुकुट बनवानेका विचार किया। सुनार कलशको तोड़कर मुकूट बनाने लगा तो राजकुमारीको उसके पानी भरनेके घड़ेके टूट जानेसे शोक हुआ, राजकुमारको लगानेके लिए मुकुट बन रहा था, सो वह किसी अनिर्वचनीय खुशीके मारे उछला फिरता था, राजा कलश और मुकुट दोनों अवस्थाओंमें सोनेकी सत्ता रखनेके कारण मध्यस्थ था। उसे तो सोने की सत्तासे हो प्रयोजन था । इस तरह राजकुमारी, युवराज तथा राजाको तीन प्रकारके भाव सोनेके कलश आकारके विनाश, मुकुट आकारके उत्पाद तथा सोनेकी दोनों अवस्थाओंमें स्थिति रखनेके कारण ही हुए हैं । इस प्रकार वस्तुमें उत्पाद, विनाश ओर स्थिति रूप तीन धर्म होनेसे वह त्रयात्मक है।" "एक सुनार सोनेके घड़ेको गलाकर मुकुट बना रहा था। कलश खरीदनेवाला कलशका विनाश देखकर दुःखी हुआ, जिसे मुकुट खरीदना था उसको खुशीका पार नहीं रहा और जिसे सोना खरीदना था वह हर हालतमें सोनेकी स्थिति देखकर मध्यस्थ हआ.न उसे रंज हो हआ और न खुशी ही। इस तरह विभिन्न व्यक्तियोंको एक ही साथ तीन प्रकारके भाव घट-नाश, मुकुंटउत्पाद और सुवर्ण-स्थितिके बिना नहीं हो सकते अतः वस्तु त्रयात्मक सिद्ध होती है।" "जिस वतीने आज केवल 'दूध ही पीऊंगा' ऐसा पयोव्रत किया है वह व्रती दही नहीं खाता। यदि दही अवस्थामें दूधका विनाश नहीं हुआ तो उस पयोव्रतीको दही भी खा लेना चाहिए, क्योंकि दही अवस्थामें भी दूध मौजूद है उसका नाश नहीं हुआ। पर वह दही नहीं खाता अतः यह मानना हो चाहिए कि दही जमते समय दूध नष्ट हो जाता है। जिस व्रतीने 'आज मैं केवल दही ही खाऊंगा' यह दधिवत लिया है वह दूध नहीं पीता। यदि दूधमें दही नामकी नयी. अवस्थाका उत्पाद नहीं होता है और दूधका नाम ही दही हो तब दधिवतीको दूध भी पी लेना चाहिए; क्योंकि उसमें किसी नये दहीके उत्पाद होनेकी तो आशा ही नहीं है। पर दधिव्रती दूध नहीं पीता, अतः यह मानना ही चाहिए कि दूधसे उत्पन्न होनेवाला दही भिन्न वस्तु है, और दहीका उत्पाद होता है। जिस व्रतीने 'आज मुझे गोरस-गायके दूधसे बनी हुई दूध-दही आदि-नहीं खाना है' ऐसा अगोरस व्रत लिया है वह दूध और दही दोनोंको नहीं खाता। क्योंकि गोरसकी सत्ता तो दूधको तरह दहीमें भी है। यदि गोरस नामकी एक अनुस्यूत वस्तु दूध और दहीमें न हो तो उसे दोनों ही खा लेने चाहिए। पर वह दोनोंका ही त्याग करता है अतः गोरसकी दोनोंमें स्थिति माननी ही चाहिए। इस तरह वस्तु उत्पादादि तीन धर्मवाली सिद्ध हो जाती है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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