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________________ ३४९ -का. ५७.६३५८] जैनमतम् । ३५८. ननुत्पादादयः परस्परं भिद्यन्ते, न वा। यदि भिद्यन्ते; कथमेकं च्यात्मकम् । न भिद्यन्ते चेत्, तथापि कथमेकं च्यात्मकमिति चेत्, तदयुक्तम् कथंचिद्धिनलक्षगत्वेन तेषां कथंचिद्भेदाभ्युपगमात् । तथाहि-उत्पादविनाशध्रौव्याणि स्याद्भिन्नानि, भिन्नलक्षणत्वात्, रूपादिवत् । न च भिन्नलक्षणत्वमसिद्धम्; असत आत्मलाभ उत्पादः, सतः सत्तावियोगो विनाशः, द्रव्यरूपतयानुवर्तनं ध्रौव्यम्, इत्येवमसंकीर्णलक्षणानां तेषां सर्वैः प्रतीतेः। न चामी परस्परानपेक्षत्वेन भिन्ना एव, परस्परानपेक्षाणां खपुष्पवदसत्त्वापत्तेः। तथाहि-उत्पादः केवलो नास्ति, स्थितिविगमरहितत्वात्, कूर्मरोमवत् । तथा विनाशः केवलो नास्ति, स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात्, तद्वत्, एवं स्थितिरपि केवला नास्ति, विनाशोत्पादशून्यत्वात्, तद्वदेव, इत्यन्योन्यापेक्षाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम् । तथा च कथं नैकं त्र्यात्मकम् । तथा चोक्तम् ६३५८. शंका-ये उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य तीनों ही परस्पर भिन्न अर्थात् स्वतन्त्र पदार्थ हैं तो एक वस्तुमें कैसे रह सकते हैं ? यदि ये परस्पर भिन्न नहीं हैं अर्थात् एक हैं तब भी एक वस्तुमें तीन धर्म कहाँ रहे? ये तीनों मिलकर जब एक ही हो गये तब एकधर्मवाली ही वस्तु हुई त्रयात्मक नहीं। समाधान-इन उत्पाद आदिके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं अतः इनमें कथंचिद् भेद है। ये कभी भी वस्तुसे भिन्न या परस्पर भिन्न उपलब्ध नहीं होते, एक वस्तुके उत्पाद आदिको दूसरी वस्तुमें नहीं ले जा सकते अतः ये अभिन्न हैं । उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं क्योंकि इनके लक्षण ही भिन्न-भिन्न हैं। जैसे रूप रस आदिके लक्षण भिन्न-भिन्न होनेसे उनमें परस्पर भेद है उसी तरह लक्षण भेदसे उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यमें भी भेद है । उत्पाद, विनाश आदिका लक्षणभेद असिद्ध नहीं है। क्योंकि उनके भिन्न-भिन्न ही लक्षण हैं। जो पदार्थ पहले नहीं है असत् है उसके स्वरूपलाभ हो जानेको उत्पाद कहते हैं। मौजूद पदार्थकी सत्ताका च्युत हो जानाउसकी सत्ताका वियोग होना विनाश है। इन उत्पाद और विनाशके होते हुए भी द्रव्यरूपसे अन्वय रहना ध्रौव्य है । इस तरह उत्पादादिके असाधारण लक्षण सभीके अनुभवमें आते हैं । ये उत्पादादि लक्षणभेदसे कथंचिद् भिन्न होकर भी परस्पर सापेक्ष हैं एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं। ये परस्पर निरपेक्ष होकर अत्यन्त भिन्न नहीं हैं। यदि ये परस्पर निरपेक्ष तथा अत्यन्त भिन्न हो जायेंगे तो इनका गधेके सींगकी ही तरह अभाव हो जायेगा। जैसे अकेला उत्पाद सत् नहीं है क्योंकि वह स्थिति और विनाशसे रहित है जैसे कि कछवेके रोम । अकेला विनाश सत् नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह उत्पत्ति और स्थितिसे रहित है जैसे कि कछवेके रोम । स्थिति अकेली सत् नहीं है क्योंकि वह उत्पाद और विनाशसे रहित है जैसे कि कछवेके रोम । इस तरह परस्पर सापेक्ष ही १. कथमेकात्मक-आ. । २.- दव्ययध्री - भ. २। ३. "उत्पादादयो हि परस्परमनपेक्षाः खपुष्पवन सन्त्येव । तथा हि-उत्पादः केवलो नास्ति स्थितिविगमरहितत्वाद्वियत्कुसुमवत् तथा स्थितिविनाशी प्रतिपत्तव्यो।"-अष्टश. अष्टस. पृ. २११ । ४. स्थित्युत्पादरहि-म. २ । ५. नैकमात्मकम् म. २, आ.। "द्रव्यं हि नित्यमाकृतिरनित्या....सुवर्ण कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमपमद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमपमद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते, पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्ड: पुनरपरया आकृत्या युक्तः खदिरागारसदृशे कुण्डले भवतः, आकृतिरन्या अन्या न भवति द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते ।"-पात. महाभा. ।।। योगमा. ४।१३। "वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वाथिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥२१॥ हेमाथिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ॥२२॥ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥२३॥"-मी. श्लो. पृ. ६१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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