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________________ ३४८ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५७.६३५६..$३५६. लूनपुनर्जातनखादिष्वन्वयदर्शनेन व्यभिचार इति न वाच्यम्, प्रमाणेन बाध्यमानस्यान्वयस्यापरिस्फुटत्वात् । न च प्रस्तुतोऽन्वयः प्रमाणविरुद्धः, सत्यप्रत्यभिज्ञानत्वात् । "सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्योश्चित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात् ॥"[ ] इति वचनात् । $३५७. ततो द्रव्यात्मना सर्वस्य वस्तुनः स्थितिरेव, पर्यायात्मना तु सर्व वस्तूत्पद्यते विपद्यते' वा, अस्खलितपर्यायानुभवसद्भावात् । न चैवं शुक्ले शङ्ख पीतादिपर्यायानुभवेन व्यभिचारः, तस्य स्खलदूपत्वात, न खलु सोऽस्खलद्रूपो, येन पूर्वाकारविनाशोऽजहद्वत्तोत्तराकारोपादानाविनाभावी भवेत् । न च जीवादी वस्तुनि हर्षाम(दासीन्यादिपर्यायानुभवः स्खलद्रूपः, कस्यचिदबाधकस्याभावात् । नहीं होती और न सत्का अत्यन्त नाश ही होता है हां रूपान्तर अवश्य होता रहता है। अतः किसी भी द्रव्यकी उत्पत्ति और नाश तो हो ही नहीं सकता। ६३५६. शंका-देखो, बाल बनवाते समय नख और बालोंको कटवाकर फेंक दिया है, उनकी जगह नये ही बाल तथा नाखून निकले हैं। इस तरह बालोंका उत्पाद और विनाश स्पष्ट ही अनुभव सिद्ध है। परन्तु 'ये वही बाल हैं ये वही नाखून हैं। इस प्रकार अन्वय यहां भी देखा जाता है अतः अन्वयके बलपर उत्पाद और व्ययका निषेध करना उचित नहीं है। समाधान-आपको हमारे हेतुपर ध्यान देना चाहिए। हमने 'परिस्फुट अन्वय' को हेतु बनाया है। जो अन्वय किसी भी प्रमाणसे बाधित न हो वह 'अन्वय परिस्फुट' कहलाता है और जिसमें बाधा आ जाती है वह तो अपरिस्फुट ही है। कटकर फिरसे उगे हुए बाल या नखोंका अन्वय प्रमाणसे बाधित है। वहां तो सदृश बालों और नखोंमें 'यह वही है' ऐसा एकत्व भान करनेवाला झूठा अन्वय है। पर पृथिवी आदिमें द्रव्यरूपसे पाया जानेवाला अन्वय किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं है। सत्य प्रत्यभिज्ञानके द्वारा 'यह वही पुद्गल है' इत्यादि अन्वय निर्बाध रूपसे अनुभवमें आते हैं। कहा भी है-"सभी पदार्थ प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहे हैं वे जो पहले समयमें थे तो दूसरे समयमें नहीं रहते। यह प्रतिक्षण परिवर्तन होनेपर भी सर्वथा भेद या विनाश नहीं होता। उपचय और अपचय होनेपर भी आकृति जाति या द्रव्यको सत्ता बनी रहती है।" ३५७. अतः द्रव्यदृष्टिसे समस्त वस्तुओंको स्थिति हो है। पर्यायकी दृष्टिसे वस्तु उत्पन्न भी होती है तथा नष्ट भी। क्योंकि पदार्थको पर्याय-परिवर्तन निर्बाधरूपसे अनुभवमें आता है। हमारा हेतु सफेद शंखमें पीले रंगकी पर्यायको जाननेवाले भ्रान्त पीतशंखज्ञानसे व्यभिचारी नहीं है। क्योंकि शुक्लशंखमें पीली पर्यायका अनुभव तो भ्रान्त है बाधित है। इसीलिए हमने हेतुमें 'अस्खलत-निर्बाध' विशेषण दिया है। शक्लशंखमें पीले रंगका अनुभव अभ्रान्त नहीं है जिससे वह भी पूर्वपर्यायका विनाश उत्तरपर्यायका उत्पाद तथा दोनोंमें पायी जानेवाली कभी भी नहीं टूटनेवाली स्थिति रूप परिणामसे अविनाभाव रख सके। जीव आदि पदार्थोंमें सुख, दुःख, उदासीनता आदि पर्योंका-परिवर्तनोंका अनुभव भ्रान्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि पदार्थोंका प्रतिक्षण होनेवाला परिवर्तन सभीके अनुभवमें आता है, उसमें कोई भी प्रमाण बाधक नहीं है । जो आदमी अभी खुशहाल है वही एकक्षणमें दुःखी तथा दूसरे क्षणमें फिर सुखी देखा जाता है। घटादि पदार्थोंका परिवर्तन तो नयेसे पुराना और पुरानेसे जीर्ण होनेसे प्रत्यक्ष सिद्ध ही है। १. उद्धृतेयम्-अनेकान्तवादप्र. पृ. ५१ । २.-तेऽस्ख-म. २ । ३. -पर्यया-म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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