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-का० ५७. ६ ३५५]
जैनमतम् । $ ३५३. अथ प्रागुक्तामेव वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकतां द्रढयन्नाह
येनोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं यत्तत्सदिष्यते ।
अनन्तधर्मकं वस्तु तेनोक्तं मानगोचरः ॥५७॥ $३५४. व्याख्या-येनेति शब्दोऽग्रे व्याख्यास्यते। वाक्यस्य सावधारणत्वात् यदेव वस्तूत्पादव्ययध्रौव्यैः समुक्तैिर्युक्तं तदेव सद्विद्यमानमिष्यते। उत्पत्तिविनाशस्थितियोग एव सतो वस्तुनो लक्षणमित्यर्थः।
६३५५. ननु पूर्वमसतो भावस्योत्पादव्ययध्रौव्ययोगाद्यदि पश्चात्सत्त्वम्; तहि शशशृङ्गादेरपि तेद्योगात्सत्त्वं स्यात् । पूर्व सतश्चेत् तदा स्वरूपसत्त्वमायातं किमुत्पादादिभिः कल्पितैः। तथोत्पादव्ययध्रौव्याणामपि यद्यन्योत्पादादित्रययोगात्सत्त्वम्; तदानवस्थाप्रसक्तिः। स्वतश्चेत्सत्त्वम्; तदा भावस्यापि स्वत एव तद्भविष्यतीति व्यर्थमुत्पादादिकल्पनमिति चेत् । उच्यते-न हि भिन्नोत्पादव्ययध्रौव्ययोगाद्धावस्य सत्त्वमभ्युपगम्यते, कि तूत्पादव्ययध्रौव्ययोगात्मकमेव सदिति स्वीक्रियते । तथाहि-उर्वीपर्वततर्वादिकं सर्व वस्तु द्रव्यात्मना नोत्पद्यते विपद्यते वा, परिस्फुटमन्वयदर्शनात् । - ६३५३. अब पहले कही गयी वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकताको और भी प्रमाणोंसे दृढ़ करते हैं
जिस कारणसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाली हो वस्तु सत् होती है इसीलिए पहले अनन्त धर्मात्मक पदार्थको प्रमाणका विषय बताया है ॥५७॥
६३५४. 'येन' शब्दका व्याख्यान आगे किया जायेगा। सभी वाक्य सावधारणनिश्चयात्मक होते हैं, अतः जो ही वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त होगी वही सत्-विद्यमान कही जा सकती है। उत्पत्ति, विनाश और स्थितिका पाया जाना ही सत् वस्तु का लक्षण है। जिसमें ये तीनों धर्म पाये जायें वही वस्तु सत् कही जा सकती है।
६३५५. शंका-जो पदार्थ पहले असत् हैं वे यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके सम्बन्धसे सत् हो जाते हों; तो खरगोशके सींग आदि असत् पदार्थों की भी उत्पादादिके सम्बन्धसे सत्ता हो जानी चाहिए। यदि पहले सत् पदार्थों में ही उत्पादादिका सम्बन्ध होता हो; तो इसका अर्थ यह हुआ कि उत्पादादिके सम्बन्धसे पहले भी वे पदार्थ स्वरूपसे सत् थे, और यदि वे पदार्थ स्वरूपसे ही सत् हैं तब उनमें उत्पादादिका सम्बन्ध मानकर सत्ता लाना निरर्थक ही है। जिस तरह पदार्थों में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे सत्ता आती है, उसी तरह यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमें अन्य उत्पादादिसे सत्ता आवे और उनमें भी अन्यसे तो अनवस्था दूषण होगा। यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य अन्य उत्पादादिकी अपेक्षा किये बिना स्वतः ही सत् हैं; तो समस्त पदार्थ भी उसी तरह स्वतः ही सत् हो जायेंगे, उनमें भी उत्पादादिसे सत्त्वकी कल्पना निरर्थक ही है।
समाधान हम लोग 'पदार्थ स्वतन्त्र हो, तथा उत्पादादि भी स्वतन्त्र हों, और उनका सम्बन्ध होनेसे थैलीमें रुपयोंकी तरह सत्ता आ जाती हो' ऐसा भेद नहीं मानते। किन्तु हमारा तो अभिप्राय यह है कि-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंका तादात्म्य ही वस्तु है और वही सत् है उत्पादादि पृथक् तथा वस्तु पृथक् नहीं है। जैसे, पृथिवी, पहाड़, वृक्ष आदि सभी पदार्थ द्रव्य दृष्टिसे न तो उत्पन्न ही होते हैं और न विनष्ट हो, क्योंकि उनमें पुद्गल द्रव्यका परिस्फुट निर्बाध अन्वय देखा जाता है । यह एक निर्बाध सिद्धान्त है कि किसी भी असत् द्रव्यको उत्पत्ति
१. "उपन्ने वा विगए वा धुवे वा।" -स्था. स्था. १०। "उत्पादव्ययध्रौव्ययक्तं सत।"
-तत्त्व. सू. ५।३० । २. -गाच्छशत्वम् भ. २ । ३. "न सामान्यात्मनोदेति न व्यति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्यदेति विशेषात्ते सहकत्रोदयादि सत।" -आप्तमी. श्लो. ५७ । ४.-स्फुटान्वय-आ., क.।
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