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षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५६. ६ ३५२ग्रहणं, 'स्वग्रहणापेक्षया हि स्पष्टत्वेन सर्वेषामेव ज्ञानानां प्रत्यक्षतया व्यवच्छेद्याभावाद्विशेषणवैयथ्यं स्यात्, ततो ग्रहणस्य बहिःप्रवर्तनस्य या ईक्षा-अपेक्षा तया, बहिःप्रवृत्तिपर्यालोचनयेति यावत् । तदयमत्रार्थः-परोक्षं यद्यपि स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षं, तथापि लिङ्गशब्दादिद्वारेण बहिविषयग्रहणेऽसाक्षात्कारितया व्याप्रियत इति परोक्षमित्युच्यते ॥५६॥
जैन-आप नीलादि बाह्यपदार्थोंके ग्रहण करनेवाले प्रत्यय-ज्ञानको भ्रान्त कहते हो। आपका यह प्रसिद्ध अनुमान है कि-'संसारके समस्त प्रत्यय निरालम्बन हैं - उनका कोई बाह्यपदार्थ विषय नहीं है, वे केवल स्वरूपमात्रको विषय करते हैं क्योंकि वे प्रत्यय हैं। जो-जो प्रत्यय हैं वे सब निरालम्बन-निविषयक हैं जैसे कि स्वप्नप्रत्यय। जिस प्रकार स्वप्नमें घट-पट आदि पदार्थों का अस्तित्व न होनेपर भी सैकड़ों घट-पट आदि पदार्थों का साक्षात् नियतरूपमें प्रतिभास होता है उसी तरह यह जगत् भी एक दीघस्वप्न है, इसमें इन घट-पटादि पदार्थों की कोई सत्ता नहीं है मात्र ज्ञान ही इन सब रूपोंमें प्रतिभासित होता है, अतः जिस तरह आप स्वप्नका दृष्टान्त देकर नीलादि प्रत्ययोंको भ्रान्त बताकर बाह्यनीलादि पदार्थों का अभाव करते हो उसी तरह यह सन्तानान्तरका साधक अनुमान भी तो प्रत्यय ही है अतः यह भी स्वप्नके ही दृष्टान्तसे भ्रान्त हो जायेगा और फिर इससे सन्तानान्तरकी सिद्धि नहीं हो सकेगी। सन्तानान्तर साधक अनुमान भी स्वप्नप्रत्ययको तरह निरालम्बन-निविषयक होगा अतः सन्तानान्तरका भी अभाव ही हो जायेगा। परन्तु सन्तानान्तरका अभाव किसी भी तरह मानना उचित नहीं है; क्योंकि गुरुशिष्य, वादी-प्रतिवादी आदिके रूपसे अनेकों ज्ञान-सन्ताने प्रत्यक्षसे ही अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाली अनुभवमें आती हैं।
प्रत्यक्षसे भिन्न-अस्पष्ट रूपसे स्व और परका निश्चय करनेवाला ज्ञान परोक्ष है। अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष होता है। परोक्षज्ञान भी स्वसंवेदनकी अपेक्षा प्रत्यक्ष ही होते हैं। क्योंकि सभी स्वरूप संवेदी होनेके कारण स्वरूपमें प्रत्यक्ष होते हैं। आत्मामें चाहे परोक्षज्ञान उत्पन्न हो या संशयज्ञान उसके स्वरूपका प्रत्यक्ष हो ही जायेगा। यह नहीं हो सकता कि ज्ञान उत्पन्न भी हो जाये और उसका प्रत्यक्ष भी न हो, वह तो दोपककी तरह अपने स्वरूपको प्रकाशित करता हुआ ही उत्पन्न होता है । अतः परोक्ष ज्ञान भी स्वरूपमें प्रत्यक्ष होता है। ये प्रत्यक्ष और परोक्ष संज्ञाएँ तो बाह्यपदार्थके स्पष्ट और अस्पष्टरूपसे जाननेके कारण होती हैं। इसी बातका सूचन करनेके लिए 'ग्रहणेक्षया' पद दिया गया है। अर्थात् वह ज्ञान बाह्यपदार्थके ग्रहणकी अपेक्षासे परोक्ष है । 'ग्रहण' का मतलब इस प्रत्यक्षके प्रकरणमें 'ज्ञानका अपरोक्ष बाह्य पदार्थमें प्रवृत्ति करना' है। न कि स्वरूप मात्रका जानना। स्वरूपको जाननेकी अपेक्षा तो सभी ज्ञान स्पष्ट तथा प्रत्यक्ष हैं अतः प्रत्यक्षके लक्षणमें 'अपरोक्षतया' विशेषण व्यर्थ ही हो जायेगा। यदि कोई परोक्ष रूपसे जाननेवाला ज्ञान होता तो उसकी व्यावृत्तिके लिए 'अपरोक्षतया' विशेषण सार्थक होता । इसलिए ग्रहण-बाह्यपदार्थों में प्रवृत्तिको ईक्षा-अपेक्षासे पदार्थोंका अस्पष्ट रूपसे निश्चय करनेवाला ज्ञान परोक्ष है। ग्रहणेक्षाका सीधा अर्थ है बाह्यपदार्थों में प्रवृत्तिका विचार या अपेक्षा । यद्यपि स्वसंवेदनकी अपेक्षा परोक्ष भी स्पष्ट होनेसे प्रत्यक्ष है फिर भी वह बाह्यपदार्थों के हेतु या शब्द आदिके द्वारा अस्पष्ट रूपसे जानता है अतः परोक्ष कहलाता है। परोक्षता बाह्य अर्थको अपेक्षासे
ही है।
१. स्वस्य ग्रहणा-भ. २ । २. -स्येक्षा. म. २ । ३. तयोर्बहिः-भ. २ । ४. -ते परो-भ. २ ।
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