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________________ -का०५६. ६ ३५२] जैनमतम् । ३४५ वदिति । संतानान्तरसाधकमनुमानं स्वस्मिन् व्यापारव्याहारयोनिकार्यत्वेन प्रतिबन्धनिश्चयादिति चेत्, न, एतस्यानुमानस्यार्थस्येव स्वप्नदृष्टान्तेन भ्रान्ततापत्तेः, तथाहि-सर्वे प्रत्यया निरालम्बनाः प्रत्ययत्वात्, स्वप्नप्रत्ययवदिति, तदभिप्रायेण यथा बहिरर्थग्रहणस्य निरालम्बनतया बाह्यार्थाभावस्तथा संतानान्तरसाधनस्यापि निरालम्बनतया 'संतानान्तराभावः स्यादिति । 'इतरज्ज्ञेयं परोक्ष प्रागृक्तात प्रत्यक्षादितरत-अस्पष्टतयार्थस्य स्वपरस्य ग्राहक-निर्णायकं परोक्षं ज्ञेयम-अवगन्तव्यम् । परोक्षमप्येतत् स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षमेव बहिरापेक्षया तु परोक्षव्यपदेशमश्नुत इति दर्शयन्नाह 'ग्रहणेक्षया' इति। इह ग्रहणं प्रस्तावादपरोक्षे बाह्यार्थे ज्ञानस्य प्रवर्तनमुच्यते न तु स्वस्य समाधान-अर्थग्राहक पदका तो 'अपने स्वरूपमात्रका ग्राहक' यह भी अर्थ होता है, अभी विज्ञानवादियोंने ही अर्थग्राहक पदका 'स्वरूपमात्रका ग्राहक' यह तात्पर्य निकालकर प्रत्यक्षका मात्र स्वरूपग्राहक कहा था। अतः 'ग्रहणेक्षया' पदसे जो योगाचार आदि समस्त ज्ञानोंको बाह्य अर्थके निश्चायक न कहकर केवल स्वरूपमात्रके ग्राहक मानते हैं, उनका निराकरण हो जाता है। जिस प्रकार अन्तःसंवेदन अपने स्वरूपको जानने में व्यापार करता है उसी तरह वह बाह्य घटपटादि पदार्थोंको भी जानता है। यदि ज्ञान बाद्य पदार्थों को न जानकर मात्र स्वरूपकाही प्रकाशक हो; तो सभी प्राणियोंको नियत बाह्य देशमें नीलादि पदार्थोंका एक सरीखा प्रतिभास नहीं हो सकेगा। ज्ञानवादियोंके मतसे अपने-अपने ज्ञानका ही नील आदि आकारोंमें प्रतिभास होता है, सो वे ज्ञानरूप नीलादि बाहर नहीं दिखाई देने चाहिए तथा सब प्राणियोंको साधारणरूपसे उनका प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिए ज्ञानका आकार तो स्वसंवेद्य होता है, साधारण जनसंवेद्य नहीं। परन्तु नीलादि पदार्थ निश्चित बाह्यप्रदेशमें सबको साधारणरूपसे ही प्रतिभासित होते हैं। अतः बाह्यनीलादि पदार्थोंकी सत्ता अवश्य हो माननी चाहिए। विज्ञानवादी-ज्ञान ही अनादि वासनाओंके विचित्र विपाकसे उन-उन नीलादिरूपोंमें बाह्यदेशमें भासित होता है, बाह्य अर्थ तो कोई है ही नहीं, अतः उसका ग्रहण करनेवाला कोई ज्ञान भी नहीं है। जैन-यदि बाह्यार्थ कोई वास्तविक नहीं है किन्तु ज्ञान ही नील-पीत आदि अनेक आकारोंमें अपनी छटा दिखाता है। तब अपनी ज्ञानसन्तानके सिवाय अन्य ज्ञानसन्तानें, जिन्हें सन्तानान्तर या आत्मान्तर भी कहते हैं, भी नहीं माननी चाहिए। वही एक स्वज्ञानसन्तान ही विचित्र वासनाके कारण नीलादि बाह्यपदार्थ रूप तथा सन्तानान्तर रूपसे प्रतिभासित होती रहेगी अन्य ज्ञानसन्तान मानना निरर्थक है। विज्ञानवादी-ज्ञानकी अनेक सन्तानोंको सिद्ध करनेवाला अनुमान मौजूद है । जैसे-देवदत्तकी ज्ञान सन्तानसे भिन्न यज्ञदत्त आदिकी ज्ञानसन्तानोंमें होनेवाली वचन-व्यवहार या प्रवृ. त्तियां बुद्धिपूर्वक हैं क्योंकि वे वचन-व्यवहार तथा प्रवृत्तियाँ हैं, जैसे कि खुद अपनी ज्ञानसन्तानमें होनेवाली बुद्धिपूर्वक वचन तथा प्रवृत्तियां । हम अपनी ज्ञानसन्तानमें ही वचन तथा अन्य प्रवृत्तियोंका ज्ञानके साथ कारणकार्यभाव ग्रहण करते हैं-हममें ज्ञान है अतः अच्छी तरह बोलते हैं तथा अन्य भोजन आदि प्रवृत्तियां चलाते हैं। उसी तरह यज्ञदत्त आदि भी बोलते तथा भोजन आदिमें प्रवृत्ति करते हैं अतः उनकी ये प्रवृत्तियां ही उन्हें स्वतन्त्र ज्ञानसन्तान सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त हैं। १. "अत एव सर्वे प्रत्यया अनालम्बनाः प्रत्ययत्वात्स्वप्नप्रत्ययवदिति प्रमाणस्य परिशद्धिः ।" -प्रमाणवार्तिकालं, ३१३३१ । २.-नान्तरभावः भ.२। ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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