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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० १.६१५$ १५. प्रभुश्रीहेमसूरिभिरप्युक्तं वीरस्तुतौ "न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः ॥१॥" [अयोगव्य. श्लो. २९ इति] १६. नन्वत्र सर्वदर्शनवाच्योऽर्थो वक्तुं प्रक्रान्तः, स च संख्यातिक्रान्तः, तत्कथं स्वल्पीय-- सानेन प्रस्तुतशास्त्रेण सोऽभिधातुं शक्यः, जैनादन्यदर्शनानां परसमयापरनामधेयानामसंख्यातत्वात् । तदुक्तं सन्मतिसूत्रे श्रीसिद्धसेनदिवाकरण "जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया। जावइया नयवाया तावइया चेव परसमया ॥१॥" [सन्मति. ३।४७ ] १७. व्याख्या-अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो य एकदेशोऽन्यदेशनिरपेक्षस्तस्य यदवधारणं सोऽपरिशुद्धो नयः। स एव च वचनमार्ग उच्यते। एवं चानन्तधर्मात्मकस्य सर्वस्य वस्तुन एकदेशानामितरांशनिरपेक्षाणां यावन्तोऽवधारणप्रकाराः संभवन्ति तावन्तो नया अपरिशता भवन्ति च वचनमार्गा इत्युच्यते। ततोऽयं गाथार्थ:-सर्वस्मिन् वस्तुनि यावन्तो यावत्संख्या वचनपथा वचनानामन्योन्यैकदेशवाचकानां शब्दानां मार्गा अवधारणप्रकारा हेतवो नया भवन्ति तावन्त एव भवन्ति नयवादाः, नयानां तत्तदेकदेशावधारणप्रकाराणां वादाः प्रतिपादकाः शब्दप्रकाराः। यावन्तो नयवादा एकैकांशावधारणवाचकशब्दप्रकाराः तावन्त एव परसमयाः परदर्शनानि भवन्ति, स्वेच्छा १५. प्रभु श्रीहेमचन्द्राचार्य भी वीरस्तुतिमें कहते हैं कि-"अहो वीर, मैंने श्रद्धाके कारण तुम्हारे साथ पक्षपात नहीं किया है और न कपिलादिमें द्वेषके कारण अरुचि हो की है। हम तो परीक्षाकी तुला लिये हैं। तुम्हारे आप्तत्वकी यथावत् परीक्षा करके ही हम तुम्हारी शरणको प्राप्त हुए हैं।" १६. शंका-इस ग्रन्थमें सर्वदर्शनोंका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की गयी है परन्तु सर्वदर्शन तो असंख्यात हैं अतः इस छोटे-से ग्रन्थके द्वारा कैसे उनका वर्णन किया जा सकता है, क्योंकि जैनदर्शनसे भिन्न अन्य परसमय असंख्यात हैं ? इसी बातको सन्मतिसूत्रमें श्रीसिद्धसेन दिवाकरने भी बताया है-"जितने वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं, और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं-परदर्शन हैं।" १७. व्याख्या-वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उसके किसी भी एक धर्मका अन्य धर्मोंकी अपेक्षा न करके 'यह ऐसा ही है। इस प्रकार अवधारण करनेवाले जितने भी नय हैं वे सब अपरिशुद्ध नय हैं। अर्थात् दुर्नय हैं। इन्हीं अपरिशुद्ध नयोंको वचनमार्ग कहते हैं। वस्तुमें जितने वचनमार्ग अर्थात् एक-एक धर्मोंके निरपेक्ष भावसे अवधारण करनेके प्रकार सम्भावित हैं उतने ही नयवाद होते हैं। और जितने नयवाद अर्थात् एक-एक धर्मोको अवधारण करनेवाले वचनोंके प्रकार हैं उतने ही समय अर्थात् परदर्शन हैं। क्योंकि अपनी इच्छासे कल्पित शाब्दिक विकल्पोंसे ही परसमयोंकी १. 'अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः एकदेशस्य यदन्यनिरपेक्षस्य अवधारणम् अपरिशुद्धो नयः, तावन्मात्रार्थस्य वाचकानां शब्दानां यावन्तो मार्गाः हेतवो नयाः तावन्त एव भवन्ति, स्वेच्छाप्रकल्पितविकल्पनिबन्धनत्वात् परसमयानां परिमितिर्न विद्यते। ननु यद्यपरिमिताः परसमयाः कथं तन्निबन्धनभूतानां नयानां संख्यानियमः-"नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूलैवम्भूता नयाः" [तत्त्वार्थसू. १२३३] इति श्रूयते; न; स्थुलतस्तच्छ्रुतेः, अवान्तरभेदेन तु तेषामपरिमितत्वमेव स्वकल्पनाशिल्पिघटितविकल्पानापनियतत्वात तदुत्थप्रवादानामपि तत्संख्यापरिमाणत्वात् ।"-सन्मति.टी, पृ. १५५। शास्त्रवा. यशो. पू. २७४ A. I तुलना-धवला. पृ. ८० । गो. कर्म. गा. ८९४ । २. -रा भव-क., प. १, २, भ. १। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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