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________________ RamaAAAAAN -का० १. ६ १४ ] मङ्गलम् । भावादिति भावः । शेषश्लोकव्याख्यानं प्राग्वत् । १४. एवं चात्रैवभुक्तं भवति-ये हि श्रीवीरस्य यथावदाप्तत्वादिपरीक्षां विधास्यन्ते स्याद्वादं च तत्प्रणीतं मध्यस्थतया सम्यगवलोक्य पश्चात् परमतान्यप्यालोकिष्यन्ते ते सत्यासत्यदर्शनविभागमपि स्वयमेवावभोत्स्यन्ते, किमस्मद्वचनस्यास्थाकरणाकरेणनेति । एतेन ग्रन्थकृता स्वस्य सर्वथात्रार्थे माध्यस्थ्यमेव दर्शितं द्रष्टव्यम् । सत्यासत्यदर्शनविभागपरिज्ञानोपायश्च हितबुद्धयात्राभिहितोऽवगन्तव्यः, पुरातनैरपीत्थमेव सत्यासत्यदर्शनविभागस्य करणात् । तदुक्तं पूज्यश्रीहरिभद्रसूरिभिरेव लोकतत्त्वनिर्णये "बन्धुर्न नः स भगवान् रिपवोऽपि नान्ये, साक्षान्न 'दृष्टचर एकतमोऽपि चैषाम् । श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग् विशेषं वीरं गुणातिशयलोलतया श्रिताः स्मः ॥१॥" [ लोकतत्त्व. १।३२] "पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥२॥" [लोकतत्त्व. १३८] वीतराग होनेके कारण असत्य नहीं बोल सकते, क्योंकि असत्य बोलनेके कारण राग-द्वेष-मोह तथा अज्ञान होते हैं। और ये उनमें नहीं हैं। श्लोकके अन्य पदोंकी व्याख्या पहलेकी तरह यहां समझ लेनी चाहिए। १४. इस व्याख्याका यह फलितार्थ हुआ कि जो तटस्थ जिज्ञासु वीरभगवान्के आप्तस्वकी यथावत् परीक्षा करके उनके द्वारा प्रणीत स्याद्वाद सिद्धान्तका मध्यस्थवृत्तिसे अच्छी तरह आलोडन करने के बाद दूसरे दर्शनोंका अध्ययन करेंगे उन्हें दर्शनोंके सत्यासत्यविवेकका स्वयं ही अनुभव हो जायेगा, ऐसे जिज्ञासु श्रोताओंको हमारे (ग्रन्थकारके ) वचनोंपर श्रद्धा या अश्रद्धा करनेकी आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। इस तरह ग्रन्थकारने अपने वचनोंमें ही बलात् श्रद्धा करनेपर भार न देकर सर्वत्र अपनी परम मध्यस्थवृत्ति दिखायी है। यहाँ सत्यासत्य विभागज्ञानके उपायोंका प्रदर्शन तो मात्र परहितबुद्धिसे ही किया गया है, किसी दर्शनपर बलात् सत्यत्व या असत्यत्वके आरोप करनेका लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है । पुरातन आचार्यों में भी इसी तटस्थवृत्तिसे दर्शनोंमें सत्यासत्यविभाग करनेकी शैली रही है। पूज्य श्रीहरिभद्रसूरिने ही लोकतत्त्वनिर्णय ग्रन्थमें कहा है कि-"न तो भगवान हमारे बन्धु ही हैं और न अन्य हरि-हरादिक शत्रु ही हैं। और न इन सबमें-से किसीको भी हमने प्रत्यक्ष ही देखा है। हाँ, इन सबके द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोंका श्रवण कर तथा इनके चरित्रका अच्छी तरह विचार अवश्य किया है। और इसी विचारके परिणाम स्वरूप हमारी गुणानुरागिणी बुद्धि, तथा गुणातिशयपर मोहित हृदय भगवान् महावीरकी शरणमें पहुँच गया है ।। १ ।। "हमारा वीरमें कोई पक्षपात-राग नहीं है और न कपिलादिकमें द्वेष ही। हमारी तो यह स्पष्ट नीति है कि-जिसके वचन युक्तियुक्त हों, तर्कशुद्ध हों उसीका स्वीकार करना चाहिए ॥२॥" १. तुलना-"आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद्विदुः । क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धत्वसंभवात् ॥"सांख्य. माठर. पृ. १३ । “रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ।।"-यश. उ. पृ. २०४ । आप्तस्व. इको. ३-४ । २.-लोकयिष्यन्ते आ., क. । ३. 'अरयोऽपि'-कोकतत्त्व.। ४. 'दृष्टतर एकतमोऽपि'-कोकतत्व.। दृष्टतर प.१, २, भ. १,२ । ५. एकतरोपि क., प. १, २, भ. १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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