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________________ १० षड्दर्शनसमुच्चये [का. १. ६१३गानभिज्ञानामप्यपकारः कश्चन संभवतीति, तद्विभागस्थापि व्यञ्जितत्वात्।। १३. अत्रापरः कश्चिदाह-ननु येषां सत्यासत्यमतविभागाविर्भावके ग्रन्थकारवचसि सम्य. गास्था न भवित्री तेषां का वार्तेति । उच्यते-येषामास्था न भाविनी ते धा--एके रागद्वेषाभावेन मध्यस्थचेतसः, अन्ये पुना रागद्वेषादिकालुष्यकलुषितत्वाद दुर्बोधचेतसः। ये दुर्बोधचेतसः तेषां सर्वजेनापि सत्यासत्यविभागप्रतीतिः कतुं दुःशका किं पुनरपरेणेति तानवगणय्य मध्यस्थचेतस उद्दिश्य विशेषणावृत्त्या सत्यासत्यमतविभागज्ञानस्योपायं प्राह-सद्दर्शन मिति । वीरं कथंभूतम् । सद्दर्शनम्सन्तः साधवो मध्यस्थचेतस इति यावत् । तेषां वर्शनं ज्ञानम् अर्थात्सत्यासत्यमतविभागज्ञानं यथावदाप्तत्वपरीक्षाक्षमत्वेन यस्माद्वीरात्स सद्दर्शनस्तम् । एतेन श्रीवीरस्य यथावदाप्तत्वादिस्वरूपमेव परीक्षणीयम् इति सूचितम् । अथवा, सतां साधूनां दर्शनं तत्त्वार्थवद्धानलक्षणं यस्मात् स सद्दर्शनः । अथवा, सन्तो विद्यमाना जीवाजीवादयः पदार्थास्तेषां दर्शनं यथावववलोकनं यस्माद्वोरात्स सद्दर्शनस्तम्। कुत एवंविधम् । यतः स्याद्वाददेशकं प्रागुक्तस्याद्वादभाषकम् । एवंविधमपि कुतः। इत्याह-यतो-जिनं राग-द्वेषाद्विजयनशीलम् । जिनो हि वीतरागत्वादसत्यं न भाषते, तत्कारणासत्यताका तथा समस्त परदर्शनोंपर विजय प्राप्त करनेवाले वचनका अभिधान करके यह सूचित किया है कि अन्य समस्त दर्शन हेय हैं तथा जैनदर्शन उपादेय है। इसलिए इस ग्रन्थकारसे उन अल्पबुद्धि श्रोताओंके भी अपकारकी सम्भावना नहीं की जा सकती जो दर्शनोंकी सत्यासत्यताका निर्णय करने में असमर्थ हैं। १३ शंका-दर्शनोंमें सत्यासत्य विभाग करनेवाले इस ग्रन्थकारके वचनोंमें जिन श्रोताओंकी सम्यक् श्रद्धा न हो उनको सत्यासत्यका परिज्ञान कैसे होगा? समाधान-जो श्रद्धा नहीं करेंगे ऐसे श्रोता दो प्रकारके हो सकते हैं-(१) रागद्वेषादिजन्य दुराग्रहसे रहित मध्यस्थ चित्तवृत्तिवाले, (२) रागद्वेषादिसे कलुषित होनेके कारण दुर्बोध चित्तवाले। इनमें जो दुर्बोध चित्तवाले हैं उन्हें तो स्वयं सर्वज्ञ भी सत्यासत्य विभाग नहीं करा सकता दूसरोंकी तो बात ही क्या ? इसलिए ऐसे श्रोताओंकी उपेक्षा करके मध्यस्थ चित्तवृत्तिवाले जिज्ञासु श्रोताओंको लक्ष्य में रखकर 'सद्दर्शन' आदि विशेषणोंकी पुनः आवृत्ति करके सभी दर्शनोंमें सत्यासत्य विवेक करनेका उपाय बताते हैं। मूलमें वीरको सद्दर्शन कहा गया है। 'सद्दर्शन'का अर्थ है-जिस भगवान् वीरके प्रसादसे सत् अर्थात् मध्यस्थ चित्तवृत्तिवाले साधु पुरुषोंको आप्तको यथावत् परीक्षा करनेकी शक्ति होनेके कारण दर्शन-ज्ञान अर्थात् मतोंमें सत्यासत्यका विवेक ज्ञान उत्पन्न होता है, वह सद्दर्शन वीर है। इस विशेषणसे यह सूचित होता है कि भगवान् वीरके आप्तत्व आदि स्वरूपकी हो यथावत् परीक्षा करनी चाहिए। अर्थात् चूंकि भगवान् वीर आप्तत्वकी कठिन परीक्षाको सह सकते हैं, वे उसमें खरे उतर सकते हैं अतः इन वीरके प्रसादसे अन्य साधुपुरुषोंको भी सत्यासत्य विवेक करनेकी सामर्थ्य प्राप्त हो सकती है। इसीलिए टीकाकार यहां भगवान् वीरके आप्तत्वकी परीक्षाकी सूचना दे रहे हैं। अथवा जिस वोरके प्रसादसे सत् अर्थात् साधुजनोंको दर्शन अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है वह सद्दर्शन वीर है । अथवा जिस वीरके प्रसादसे सत् अर्थात् विद्यमान जीवाजीवादि पदार्थों का दर्शन अर्थात् यथार्थ अवलोकन होता है वह सद्दर्शन वीर है। प्रश्न-वीर भगवान्की सद्दर्शनता कैसे जानी जाती है ? उत्तर-चूंकि भगवान् वीर स्याद्वादके उपदेशक हैं इसीलिए वे सद्दर्शन हैं। और वे यतः राग-द्वेषादि शत्रुओंके जीतनेके कारण जिन हैं इसीलिए वे सत्य-स्याद्वादके उपदेशक हैं। जिन १. संभवी तद्वि-प. १, २, भ. १, २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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