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का० १. ६१२]
मङ्गलम्। [हैम० ५।१११७१] इति डः, कं वचनम्, स्याद्वाददेशं के वचनं यस्य तम् । अनेन विशेषणेन प्रागुक्तानुक्तानामशेषाणां बौद्धावीनां संभवैतिशप्रमाणवादिचरकप्रमुखाणां च मतानामुच्छेवकारि वचनमित्यर्थः। 'जिनं नत्वा मया सर्वदर्शनवाच्योऽर्थो निगद्यते' इत्युक्तं ग्रन्थकृता। अत्र च नमनक्रिया प्राक्कालसंबन्धिनी, क्त्वाप्रत्ययस्य प्राक्कालवाचकत्वात्, निगवनक्रिया तु वर्तमानजा। ते चैकेनैव ग्रन्थकृता क्रियमाणे नानुपपन्ने, अपरया सकलव्यवहारोच्छेदप्रसंगात् । न चैवं भिन्नकालयोः क्रिययोरेकककता बौद्धमते संभवति, तेन क्षणिकवस्त्वभ्युपगमात् । ततः कश्चिद्वौद्धमतस्य प्रस्तुतग्रन्थस्यादावुक्तत्वेनोपादेयतां मन्येत, तनिवारणाय प्रागुक्तविशेषणसंगृहीतमपि बौद्धमतनिरसनं पुनरिह सूचितं द्रष्टव्यम् । एतेषां परदर्शनानां निरसनप्रकारो ग्रन्थान्तरादवसेयः। तदेवं जिनस्य विशेषणद्वारेण सत्यवर्शनतां सर्वपरवर्शनजेतृवचनतां चाभिवधता अखिलान्यवर्शनानां हेयता जैनदर्शनस्योपादेयता च सूचिता मन्तव्या। ततो नास्माद् ग्रन्थकारात् सत्यासत्यदर्शनविभा. करनेपर 'क' शब्द सिद्ध होता है। जिसका 'क' अर्थात् वचन 'स्याद्वाददेश' है अर्थात् स्याद्वादविरोधियोंका खण्डन करनेवाला है वह स्याद्वाददेशक है। स्याद्वाददेशक विशेषणका भी अर्थ है जिसके वचन स्याद्वादमें विरोधादि असद्भूत दूषणोंका आरोप करनेवाले अन्य मतोंका खण्डन करनेवाले हैं वह। इस तरह 'स्याद्वाददेशक' इस विशेषणसे सूचित होता है कि भगवान्के वचन उक्त या अनुक्त सभी बौद्धादि दर्शनोंके तथा सम्भव और ऐतिह्यको प्रमाण माननेवाले चरक आदिके मतोंके उच्छेद करनेवाले हैं। अतः इनसे जैनदर्शनके अतिरिक्त अन्यदर्शनोंमें हेयताका भी सूचन हो ही जाता है।
ग्रन्थकारने आद्यश्लोकमें 'जिनं नत्वा सर्वदर्शनवाच्योऽर्थो निगद्यते' अर्थात् जिनदेवको नमस्कार कर सब दर्शनोंके वाच्यार्थका कथन करता हूँ, यह प्रतिज्ञा की है। इसका तात्पर्य है कि पहले नमस्कार करके इस समय ग्रन्थका कथन करता हूँ। क्त्वा प्रत्यय अतीतकालका वाचक होता है अतः यहां नमनक्रिया प्राक्कालीन है तथा ग्रन्थनिगदनक्रिया वर्तमानकालीन । ( जैनमतमें आत्माको कथंचिन्नित्य स्वीकार किया है अतः) एक ही ग्रन्थकार प्राक्कालीन नमनक्रिया तथा उत्तरकालीन ग्रन्थनिगदनक्रियाका कर्ता हो सकता है, इसमें कोई विरोध नहीं है। सारांश है कि यदि भिन्नकालीन दो क्रियाओंका कर्ता एक न हो अर्थात् पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें एक आत्माका अस्तित्व न माना जाय तो जगत्के समस्त व्यवहारोंका उच्छेद हो जायेगा क्योंकि एक कर्त्ता जब भिन्नकालीन दो क्रियाओंको नहीं कर सकेगा और वह अनेक समय तक स्थिर ही नहीं रहेगा तब जगत्के देन-लेन, हिंसक-हिस्य, गुरु-शिष्य आदि सभी प्रतीतिसिद्ध व्यवहारोंका लोप हो जायेगा। अतः आत्माको कथंचिन्नित्य माननेपर ही उसमें भिन्नकालीन दो क्रियाओंका कर्तृत्व बन सकता है। किन्तु बौद्धोंके मतमें भिन्नकालीन दो क्रियाओंका एक कर्ता नहीं बन सकता क्योंकि उन्होंने वस्तुको क्षणिक माना है। सारांश है कि 'यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः'-जो जहां और जब उत्पन्न हुआ है वह वहीं और उसी क्षणमें ही रहता है कालान्तर तथा देशान्तरमें नहीं पहुंच सकता । अतः ऐसे अनन्वित क्षणिकवादमें किसी भी पदार्थका भिन्नकालीन दो क्रियाओंके काल तक पहुँचना सम्भव ही नहीं है। यद्यपि स्याद्वाददेशक आदि विशेषणोंसे बौद्धमतका निरास हो जाता था फिर भी 'नत्वा सर्वदर्शनवाच्योऽर्थः निगद्यते' इस प्रतिज्ञावाक्यसे व्यक्त होनेवाले व्यंग्यार्थसे बौद्धमतका पुनः निराकरण इसलिए किया है कि कोई यह न समझ ले कि इस ग्रन्थमें सर्वप्रथम बौद्धदर्शनका ही निरूपण है अतः बौद्धदर्शन ही उपादेय है। इन सभी परदर्शनोंका खण्डन अन्य जैनतर्कग्रन्थोंमें पर्याप्त विस्तारसे किया गया है अतः वह उन्हीं ग्रन्थोंसे देख लेना चाहिए।
इस तरह 'जिनदेव' के सद्दर्शन स्याद्वाददेशक आदि विशेषणों-द्वारा ग्रन्थकारने जैनदर्शनको १. -ता सू-आ., क. ।
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