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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० १.१ १२"सद्विद्यमाने सत्ये च प्रशस्ताचितसाधुषु" [अनेकार्थ० १११०] इत्यनेकार्थनाममालावचनात, सत्सत्यं न पुनरसत्यं दर्शनं मतं यस्य तम् । जिनमिति विशेष्यम् । चतुर्विशतेरपि जिनानामेकतरं ( 4 ) रागादिशत्रुजयात्सान्वयनामानं जिनं वीतरागं नत्वा । एतेन पदद्वयेन चतुर्विशतेरपि जिनानामन्योन्यं मतभेदों नास्तीति सूचितम् । तहि श्वेताम्बर दिगम्बराणां कथं मिथो मतभेद इति चेत्, उच्यतेमूलतोऽमीषां मिथो न भेदः किन्तु पाश्चात्य एवेति । कोदृशं जिनम् । अवीरम् । आः स्वयंभूः, अः कृष्णः, उरीश्वरः । 'आ अ उ' इति स्वरत्रययोगे 'ओ' इति सिद्धम्, तानीरयति तन्मतापासनेन प्रेरयतीत्यचि प्रत्ययेऽवीरम्, सृष्टयादिक ब्रह्मकृष्णेश्वरदेवताभिमतमतानां निरासमित्यर्थः । तथा स्याद्वाददेशकम् स्थाद्वादं यन्ति छिन्दते "क्वचित्" [हैम० ५।१११७१] डः इति डप्रत्यये स्याद्वाददाः तत्तदसद्भूतविरोधादिदूषणोद्घोषणः स्याद्वादस्य छेदिनः इत्यर्थः। तेषाम् ई लक्ष्मी महिमानं वा श्यति तत्तदीयमतापासनेन तनूकरोति यत्तत्स्याद्वाददेशम् । के गै रै शब्दे । के कायतीति "क्वचित्" प्रकार है-आचार्यने 'सद्दर्शनं जिनं नत्वा' कहा है। सत् शब्दका प्रयोग अनेकार्थ नाममालाके वचनानुसार 'विद्यमान, सत्य, प्रशस्त, पूजित तथा साधु' इन अर्थों में होता है। अतः 'सद्दर्शन' पदका अर्थ होगा-सत् अर्थात् सत्य किन्तु असत्य नहीं, ऐसा जिसका दर्शन-मत है वह । अर्थात् 'सत्य मतवाला' होता है। श्लोकमें 'जिन' पद विशेष्य है। इसका एकवचन रूपसे निर्देश किया गया है। इससे यह सूचित होता है कि चौबीसों ही तीर्थंकर रागादि शत्रुओंको जीतनेके कारण सार्थक नामवाले वीतराग जिन हैं, अतः इनमें-से जिस किसी भी एक तीर्थकर जिनका ग्रहण कर लेना चाहिए । 'सद्दर्शन और जिन' इन दो पदोंसे यह भी सूचित होता है कि चौबीसों ही तीर्थंकर सद्दर्शन अर्थात् समीचीन मतके प्रकाशक थे, उनके शासनमें परस्पर कोई भी मतभेद या विरोध नहीं है । प्रश्न-तब आज जो श्वेताम्बर और दिगम्बर रूपसे वीर शासनमें परस्पर मतभेद दिखाई देता है वह क्यों है ? उत्तर-मूल दृष्टिसे इनमें कोई भेद नहीं है । वह तो पीछेका है। इस तरह इन दो पदोंसे जैन-दर्शनकी उपादेयता या सद्दर्शनताका सूचन कर ही दिया है। वे जिन कैसे हैं ? 'अवीर' हैं । 'नत्वावीरम्' यहां 'नत्वा अवीरम्' ऐसा पदच्छेद करना चाहिए। अवोरका अर्थ होता है-'अवीर' का यहां आ + अ + उ+ ईर इस प्रकार पदच्छेद किया गया है। आ = ब्रह्मा, अविष्ण, उ= ईश्वर अर्थात् महादेव । आ, अ तथा उ तीनों स्वर मिलकर सन्धिके नियमके सार 'ओ' बन जाते हैं। जो इस 'ओ' को अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरको ईरयति अर्थात् उनके मतका निराकरण कर प्रेरणा करता है-उन्हें खदेड़ देता है वह (ओ + ईर् + अ) अवीर है। अर्थात् सृष्टि-स्थिति प्रलयके कर्ता ब्रह्मा-विष्णु-महादेवको माननेवाले दर्शनोंका निरास करनेवाला अवीर है। 'स्याद्वाददेशक' यहाँ स्याद्वादद+ई + श + क इस प्रकार पदच्छेद किया है। स्याद्वादको जो द्यन्ति अर्थात् छेदन करते हैं वे 'स्याद्वादद' अर्थात् संशयादि दूषणोंका उद्भावन कर स्याद्वादके छेदन करनेवाले कहे जाते हैं। यहां दो-अवखण्डने धातुसे 'क्वचित्' इस सूत्रसे ड प्रत्यय करनेपर 'द' रूप निष्पन्न होता है। इन स्याद्वादद अर्थात् स्याद्वादके विरोधियोंकी ई अर्थात् लक्ष्मीमहिमाको जो 'श्यति' अर्थात् उनके मतका खण्डन करके कृश करता है वह (स्याद्वादद+ई + श) स्याद्वाददेश है। 'के गै रै' धातुएं शब्दार्थक हैं। के धातुसे 'क्वचित्' इसी सूत्रसे 'ड' प्रत्यय १. आ स्व-आ.। अः कृष्णः आ स्वयंभूः उ-भ. २ । “अकारो वासुदेवः स्यादाकारस्तु पितामहः ।""उकारः शंकर. प्रोक्तः"" -अनेकार्थध्वनि. इलोक. १, २. उरिति-आ.। औरिति-क.। ३. "क्वचित्-उक्तादन्यत्रापि यथालक्ष्यं डः स्यात्" --हैम. लघु. ५1१1१७१। ४.-नः तेषाम्-आ.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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