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________________ -का० १.१२] मङ्गलम् । $ ११. नन्वयं शास्त्रकारः सर्वदर्शनसंबन्धीनि शास्त्राणि सम्यकपरिज्ञायैव परोपकाराय प्रस्तुतं शास्त्रं दृब्धवान्, तत्कथमनेनैवेहेदं नाभिदधे-'अमुकममुकं दर्शनं हेयम्, अमुकं चोपादेयम्' इति चेत्, उच्यते-इह सर्वदर्शनान्यभिधेयतया प्रक्रान्तानि, तानि माध्यस्थ्येनैवाभिदधानोऽत्रौचिती नातिकामति । 'इदमिदं हेयम्, इदं चोपादेयम्' इति ब्रुवाणस्तु प्रत्युत सतां सर्वदर्शनानां चानादेयवचनों वचनीयतामञ्चति ।। ६.१२. नन्वेवं तमुस्याचार्यस्य न परोपकारार्थी प्रवृत्तिः। कुत एवं भाषसे। नन्वेष दर्शयामि-ये केचन मादृशाः श्रोतारः स्वयमल्पबुद्धित्वेन हेयोपादेयदर्शनानां विभागं न जानीयुस्तेषां सर्वदर्शनसतत्त्वं निशम्य प्रत्युतैवं बुद्धिर्भवेत्-'सर्वदर्शनानि तावन्मिथो विरुद्धाभिधायोनि, तेषु च कतरत्परमार्थसदिति न परिच्छिद्यते। तकिमेतैर्दर्शनानः प्रयोजनम् । यदेव हि स्वस्मै रोचते तदेवानुष्ठेयम्' इति । एवंविधाश्चाविभागज्ञा अस्मिन्काले भूयांसोऽनुभूयन्ते । तदेवं शास्त्रकारस्य सूररुपकाराय प्रवृत्तस्य प्रत्युत प्रभूतानामपकारायापि प्रवृत्तिः प्रबभूव, ततश्च लाभमिच्छतो मूलहानिरजनिष्टेति चेत् । न, शास्त्रकारात्सर्वोपकारायैव प्रवृत्तात् कस्याप्यपकारासिद्धः। विशेषणद्वारेण हेयोपादेयविभागस्यापि कतिपयसहृदयहृदयसंवेद्यस्य संसूचनात् । तथाहि-सद्दर्शनं जिनं नत्वा उपादेयका ग्रहण करके परम्परासे अनन्तज्ञानादि चतुष्टय रूप सिद्धिका प्राप्त करना। ६११. शंका-जब शास्त्रकारने सभी दर्शनोंके ग्रन्थोंका अच्छी तरह आलोडन करके ही परोपकारके लिए इस शास्त्रको रचा है तब उन्होंने ही 'अमुक-अमुक दर्शन हेय है तथा अमुकअमक दर्शन उपादेय है' यह स्पष्टरूपसे क्यों नहीं कह दिया? समाधान-इस ग्रन्थमें सभी दर्शनों का समुच्चयरूपसे कथन करना ग्रन्थकारको इष्ट है। अतः वह पूर्ण मध्यस्थ भावसे उनका यथार्थ निरूपण करे यही उचित है । इसके विपरीत यदि वह अपनी इस मर्यादाका उल्लंघन कर 'ये दर्शन हेय हैं और यह उपादेय है' इस प्रकार उनकी हेयोपादेयतामें अपना दृष्टिकोण प्रकट करता है तो तटस्थ सज्जन तथा अन्यदर्शनावलम्बी उसके वचनोंमें आदर तो करेंगे ही नहीं प्रत्युत शास्त्रकारकी निन्दा ही होगी। १२. शंका-यदि आचार्य दर्शनोंकी हेयोपादेयताका विवेक नहीं बताते हैं तब तो उनकी यह शास्त्रप्रवृत्ति परोपकारके लिए नहीं हुई। प्रश्न-ऐसा कहनेका कारण क्या है ? उत्तर-यह मैं बताता हूँ। जो मुझ-जैसे मन्दबुद्धि श्रोता हैं वे बुद्धिकी मन्दताके कारण स्वयं तो 'ये दर्शन हेय हैं तथा ये उपादेय' इस प्रकार दर्शनोंमें हेयोपादेय विवेक कर ही नहीं सकते, अतएव वे समस्त दर्शनोंके स्वरूपको सुनकर स्वभावतः यही सोचेंगे कि जब सभी दर्शन परस्पर विरोधी कथन करनेवाले हैं, तथा इनमें 'कौन सत्य है और कौन असत्य' यह जानना कठिन है तब इन दर्शनोंको-जिनका समझना ही अत्यन्त कठिन है-जानकर ही हम क्या करेंगे? जो अच्छा लगे सो करो। इस समय ऐसे दर्शनोंके विवेकको नहीं जाननेवाले ही बहुत हैं । इसलिए शास्त्रकार आचार्यकी परोपकारके लिए की गयो यह प्रवृत्ति विवेकविमुख बहुत लोगोंके अपकारके लिए ही सिद्ध हुई । अतः ग्रन्थकारका लाभके लिए किया गया यह व्यापार मूलका ही नाश करनेवाला सिद्ध हआ। समाधान-सबके उपकारके लिए ही प्रवृत्ति करनेवाले शास्त्रकारसे किसी भी व्यक्तिका अपकार हो ही नहीं सकता । आचार्यने स्वयं सद्दर्शन' आदि विशेषणों द्वारा दर्शनोंके हेयोपादेय विवेककी भी बड़ी कुशलतासे सूचना की है, जो कुछ सहृदय व्यक्ति ही समझ सकते हैं। वह इस १. इह तु सर्व-आ. । २. सत्तत्त्वं क., मु । मतत्त्वं प. १, २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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