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________________ षड्दर्शनसमुच्चये 'तं मंगलमाईए मज्झे पज्जंतए य सत्थस्स । पढमं सत्थस्साविग्घपारगमणाए निद्दिट्ठ ॥ १ ॥ " तस्सेवाविग्वत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सप सिस्साइवंसस्स ||२ || [ विशेषा० गा० १३-१४ ] $ ९. 'वीरं नत्वा' इत्युक्तं तत्र क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासापेक्षत्वात् 'निगद्यते' इति क्रियापदमत्र संबन्धनीयम् । को निगद्यते । सर्वदर्शनवाच्योऽर्थः । सर्वाणि मूलभेदापेक्षया समस्तानि यानि दर्शनानि बौद्धादीनि तैस्तेषां वा वाच्योऽभिधेयोऽर्थो देव तत्त्व- प्रमाणादिलक्षणः संक्षेपेण समासेन निगद्यतेऽभिधीयते । मयेत्यनुक्तमप्यत्रार्थाद् गम्यते । [ का० १. १९ १०. एतेन साक्षादभिधेयमभ्यधात्, संबन्धप्रयोजने तु 'सामर्थ्यादवसेये । सर्वदर्शनवक्तव्यदेव तत्त्वादिज्ञानमुपेयम्, इदं शास्त्रं तस्योपायः, एवमुपायोपेयलक्षणः संबन्धः सूचितो द्रष्टव्यः । "प्रयोजनं तु द्वेधा कर्तुः श्रोतुश्च । द्वयमपि द्वेधा - अनन्तरं परंपरं च । कर्तुरनन्तरं प्रयोजनं सत्त्वानुग्रहः । श्रोतुरनन्तरं सर्वदर्शनाभिमतदेव तत्त्व-प्रमाणादिज्ञानम् । द्वयोरपि परंपरं पुनर्हेयोपादेयदर्शनानि ज्ञात्वा यान्यपहाय, उपादेयं चोपादाय परंपरयानन्तचतुष्टयात्मिका सिद्धिरिति । मंगल करना चाहिए । आदिमंगल निर्विघ्नरूपसे शास्त्र के पारगमनके लिए, मध्यमंगल शास्त्रकी स्थिरता के लिए तथा अन्तिम मंगल शिष्य-प्रशिष्य परिवार में शास्त्रकी परम्परा स्थिर रखने के लिए किया जाता है ॥ १-२ ॥ " $ ९. श्लोक में 'वीरं नत्वा' यह कहा है | व्याकरणशास्त्र के नियमके अनुसार जिस क्रिया में 'क्त्वा' प्रत्यय लगा रहता है वह क्रिया आगे होनेवाली किसी दूसरी क्रियाकी अपेक्षा रखती है । इसलिए यहाँ 'नत्वा' क्रियाका 'निगद्यते' क्रियासे सम्बन्ध कर लेना चाहिए । तब सीधा वाक्यार्थ इस प्रकार हो जाता है— 'वीरको नमस्कार करके बौद्धदर्शन आदि सभी मूलदर्शनों में प्रतिपादित देव, तत्त्व और प्रमाण आदिका स्वरूप संक्षेपसे कहा जाता है ।' यद्यपि श्लोक में 'निगद्यते' क्रियाका 'मया' यह कर्ता अनुक्त तो भी क्रियाकी सामर्थ्य से उसका अध्याहार कर लेना चाहिए । १०. इस श्लोक में आचार्यने समस्त दर्शनोंके कथन करनेकी प्रतिज्ञा करके ग्रन्थका अभिधेय समस्त-दर्शन के देवादि तत्त्व हैं, यह स्वयं हो बता दिया है । सम्बन्ध और प्रयोजन सामर्थ्यंसे ज्ञात हो जाते हैं । यहाँ सभी दर्शनों में प्रतिपादित देवता तथा तत्त्व आदिका यथार्थ ज्ञान ही उपेय अर्थात् प्राप्तव्य है और यह ग्रन्थ उस ज्ञानका साधन होनेसे उपाय है । अतः उपायोपेय रूप सम्बन्ध सूचित हो जाता । प्रयोजन दो प्रकारका है - एक ग्रन्थकारका तथा दूसरा श्रोताका । दोनों ही प्रयोजन साक्षात् और परम्पराके भेदसे दो-दो प्रकार के होते हैं । इस ग्रन्थमें ग्रन्थकारका साक्षात्प्रयोजन है— तत्त्वका परिज्ञान कराके प्राणियोंका उपकार करना। सभी दर्शनों में प्रतिपादित देव, तत्त्व तथा प्रमाण आदिके स्वरूपका यथार्थपरिज्ञान करना श्रोताका साक्षात् प्रयोजन है । दोनोंका परम्परा प्रयोजन है - दर्शनों में हेयोपादेयका विवेक प्राप्त करके हेयका परित्याग तथा Jain Education International १. अ - भ. १, २ । २. तस्सेवा उ विज्जट्टं भ. २ । ३. संक्षेपेन - प. १, २, भ. १ । ४. वसे— प. १, २, भ. १, २ । ५. तुलना - " प्रयोजनं द्वेधा कर्तुः श्रोतुश्च । पुनद्विविधम् - अनन्तरं सान्तरं च । – स्था. र. पू. १० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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