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षड्दर्शनसमुच्चये
"जेसु' अनासु तओ, न नज्जाए नज्जाए य नाएसु ।
किह तस्स ते न धम्मा, घडस्स रुवाइधम्मव्व ॥ १ ॥ "
तस्मात्पटादिपर्याया अपि घटस्य संबन्धिन इति । परपर्यायाश्च स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः उभये तु स्वपरपर्यायाः सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणाः । न चैतदनाएं यत उक्तमाचाराङ्गे“जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ।"
अस्यायमर्थः - य एकं वस्तूपलभते सर्व पर्यायैः स नियमात्सर्वमुपलभते, सर्वोपलब्धिमन्तरेण विवक्षितस्यैकस्य स्वपरपर्यायभेदभिन्नतया सर्वात्मनावगन्तुमशक्यत्वात् यश्च सर्वं सर्वात्मना साक्षादुपलभते स एकं स्वपरपर्यायभेदभिन्नं जानाति, अन्यत्राप्युक्तम्एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ||१||
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स्वरूपका परिज्ञान ही हो नहीं सकता । प्रयोग - जिसकी अनुपलब्धि रहने से जिसके स्वरूपका यथार्थ परिज्ञान न हो सके वह उसका सम्बन्धी है, जैसे कि रूपादिकी अनुपलब्धि रहनेपर घड़ेका परिज्ञान नहीं हो पाता अतः रूपादि घड़ेके सम्बन्धी हैं, चूँकि पटादिपर्यायोंकी अनुपलब्धि रहनेपर भी घड़ेका यथार्थं परिज्ञान नहीं हो पाता अतः पटादिपर्यायें भी घड़ेके साथ सम्बन्ध रखती हैं । यह हेतु असिद्ध नहीं है; क्योंकि जबतक पटादिपर्यायरूप प्रतियोगियोंका परिज्ञान नहीं होगा तबतक उनका निषेध करके परपर्यायाभावात्मक घड़ेका तत्त्वतः ज्ञान ही नहीं हो सकता । भाष्यकारने कहा भी है- “जिनके अज्ञात रहनेपर जिसका ज्ञान नहीं हो पाता और जिनका ज्ञान होनेसे ही जिसका ज्ञान होता है वे उसके धर्म क्यों नहीं कहे जायेंगे ? जिस तरह रूपादिका ज्ञान न होनेपर घड़ा अज्ञात रहता है तथा रूपादिका ज्ञान होनेपर ही घड़ेका ज्ञान होता है अतः रूपादि घड़े धर्म हैं उसी तरह परपर्यायोंका ज्ञान न होनेपर घड़ा यथार्थं रूपसे अज्ञात रहता है तथा परपर्यायोंके ज्ञानसे ही परपर्यायाभावात्मक घड़ेका परिज्ञान होता है अतः परपर्यायों को भी घड़ेका धर्म मानना चाहिए ।" अतः पटादिपर्यायें भी घड़ेको सम्बन्धी हैं उनमें और घड़े में नास्तित्वरूप से ही सही, सम्बन्ध तो मानना ही पड़ेगा । स्वपर्यायोंसे परपर्यायोंका प्रमाण अनन्तगुना है। दोनों ही स्व-परपर्यायें सभी द्रव्यों में पायी जाती हैं, सभी द्रव्योंका स्वपर्याय तथा परपर्यायरूपसे परिणमन होता है । यह बात पुराने ऋषियोंको परम्परानुसार ही कही गयी है, क्योंकि आचारांग सूत्रमें ही कहा है कि - "जो एकको जानता है वह सबको जानता है, जो सबको जानता है वही एकको जानता है" इसका तात्पर्य यह है कि जो एक वस्तुको उसकी समस्त पर्यायोंके साथ निश्चित रूपसे जानता है उसे नियमसे समस्त पदार्थोंका ज्ञान हो ही जाता है । समस्त पदार्थोंको जाने बिना विवक्षित एक वस्तुमें स्वपर्याय और परपर्यायोंका भेद करके उसका ठीक-ठीक पूरे रूपसे ज्ञान हो ही नहीं सकता । इस वस्तुका परपर्यायोंसे भेद समझने के लिए परपर्यायोंका ज्ञान आवश्यक है । जो समस्त पदार्थों को पूरे-पूरे रूपसे साक्षात् जानता है वही एक वस्तुका स्वपर्याय और पर पर्यायका भेद करके यथार्थ परिज्ञान कर सकता है । स्व और परका भेद तो स्व और परके यथार्थ ज्ञानकी आवश्यकता रखता है । दूसरे शास्त्रों में भी इसी बात को इस रूपसे कहा है- " जिसने एक भी पदार्थको सब रूपसे - स्व- परका पूर्ण भेद करके पूर्णरूपसे जान लिया है उसने सभी पदार्थों का सब रूपसे परिज्ञान कर लिया। क्योंकि सबको जाने बिना एकका पूरा परिज्ञान नहीं हो सकता । जिसने सब पदार्थोंको सब रूपसे जान लिया है वही एक पदार्थको पूरे रूपसे जान सकता है ।"
का० ५५. ९ ३४९
१. येषु अज्ञातेषु ततो न ज्ञायते ज्ञायते च ज्ञातेषु । कथं तस्य ते न धर्माः घटस्य रूपादिधर्मा इव || २. न चैतदर्थं यदाह परमेश्वरः । जे भ. २ । ३. य एकं जानाति सर्वं जानाति । यः सर्वं जानाति स एकं जानाति ॥ ४. उद्धृतोऽयम् तस्त्रोप, पृ. ७९ । म्यायचा. ता. टी. पृ. ३७ ।
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