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- का० ५५. १३४९ ]
जैनमतम् ।
उपयुज्यन्ते च घटस्य पर्यायाणां विशेषतया पटादिपर्यायाः, तानन्तरेण तेषां 'स्वपर्यायव्यपदेशाभावात्, तथाहि - यदि ते परपर्याया न भवेयुः तर्हि घटस्य स्वपर्यायाः स्वपर्याया इत्येवं न व्यपदि - श्येरन्, परापेक्षया स्वव्यपदेशस्य सद्भावात्, ततः स्वपर्यायव्यपदेशकारणतया तेऽपि परपर्यायास्तस्योपयोगिन इति तस्येति व्यपदिश्यन्ते । अपि च, सर्वं वस्तु प्रतिनियतस्वभावं सा च प्रतिनियतस्वभावता प्रतियोग्य भावात्मक तोपनिबन्धना । ततो यावन्न प्रतियोगिविज्ञानं भवति तावन्नाधिकृतं वस्तु तदभावात्मकं तत्त्वतो ज्ञातुं शक्यते, तथा च सति पटादिपर्यायाणामपि घटप्रतियोगित्वात्तदपरिज्ञाने घटो न याथात्म्येनावगन्तुं शक्यत इति पटादिपर्याया अपि घटस्य पर्यायाः । तथा चात्र प्रयोगः - यदनुपलब्धौ यस्यानुपलब्धिः स तस्य संबन्धी, यथा घटस्य रूपादयः, पटादिपर्यायानुपलब्धौ च घटस्य न याथात्म्येनोपलब्धिरिति ते तस्य संबन्धिनः । न चायमसिद्धो हेतुः, पटादिपर्यायरूपप्रतियोग्य परिज्ञाने तदभावात्मकस्य घटस्य तत्त्वतो ज्ञातत्वायोगादिति । आह च भाष्यकृत् -
कही जाती हैं । इन निषेधकी विवक्षासे तो घड़े और कपड़ेका भी सम्बन्ध कहा जा सकता है । 'घड़ा कपड़ा नहीं है' इस प्रयोगमें घड़ा और कपड़ा नास्तित्वरूपसे एक दूसरेके सम्बन्धी हैं ही । घड़ेका 'पटरूपसे न होना' पटकी अपेक्षाके बिना कैसे हो सकता है । यदि पट नहीं है या अज्ञात है तो घड़े का पटरूपसे अपरिणमन कैसे कहा जा सकता है ? 'घड़ा पटरूप नहीं है तथा पट घटरूप नहीं है' इस तरह घट और पटका परस्परमें अभाव है; इसी इतरेतराभावको निमित्त लेकर लोकमें भी घट और पट में नास्तित्वरूप सम्बन्धका व्यवहार होता है यह बिलकुल निर्विवाद है और इस अनुभाव से भी कि - जिनका परस्पर अभाव होता है वे नास्तित्वरूपसे एक दूसरे के सम्बन्धी होते ही हैं । इन परपर्यायों स्वपर्यायोंका भेद होनेपर ही ये स्वपर्याय कहे जाते हैं, अतः भेदक होने के कारण भी परपर्यायें घड़ेकी कही जाती हैं । भेद करने में उनका असाधारण उपयोग है । जो स्वपर्यायोंमें भेद डालने में उपयोगी होते हैं वे उसीके पर्याय हैं जैसे कि घड़े में रहनेवाले परस्पर भेदक रूपादि पर्यायें । चूँकि घटकी पर्यायोंका पटादि पर्यायोंसे भेद करने में पटादिपर्यायोंका पूरापूरा उपयोग होता है अतः विशेषक - भेदक होने के कारण परपर्यायें भी घड़ेकी ही कही जानी चाहिए। परपर्यायोंके बिना घड़ेको स्वपर्यायों में 'स्व' व्यपदेश ही नहीं होता । यदि पटादिपर्यायें न हों तो घड़े की स्वपर्यायोंमें 'स्व' व्यपदेश ही नहीं हो सकता। किसी परकी अपेक्षा ही दूसरेको 'स्व' कह सकते हैं । इस तरह स्वपर्यायों में 'स्व' व्यपदेश कराने में कारण होनेसे वे परपर्यायें भी घड़े उपयोगी हैं तथा इसी दृष्टिसे घड़ेकी कही जा सकती हैं। संसार की समस्त वस्तुएँ अपने-अपने प्रतिनियत - निश्चित स्वरूप में स्थित हैं, किसीका स्वरूप दूसरे से मिलता नहीं है अपने अपने स्वाधीन हैं। वस्तुओंकी यह प्रतिनियत स्वभावता -- असाधारण स्वरूपका होना - जिन वस्तुओं से उसका स्वरूप भिन्न रहता है उन प्रतियोगी पदार्थोंके अभाव के बिना नहीं बन सकती । घड़े का स्वरूप पटादिसे भिन्न है तो जबतक पटादिका अभाव न होगा तबतक घड़े में अपना असाधारण पटस्वरूप भी सिद्ध नहीं हो सकता । इसलिए जबतक उन प्रतियोगी परपदार्थोंका परिज्ञान नहीं होगा तबतक हम घटादिको उनसे व्यावृत्तरूपमें परमार्थतः नहीं जान सकते। जिस पदार्थका अभाव किया जाता है उसे प्रतियोगी कहते हैं । जबतक पटादि प्रतियोगियोंका परिज्ञान नहीं होगा तबतक 'घड़ा पटाभावरूप है' यह जानना हो नितान्त असम्भव है । घड़े में पटादिका अभाव पाया जाता है अत: घड़े ज्ञानके लिए प्रतियोगी पटादिका ज्ञान तो पहले ही चाहिए । इस दृष्टिसे भी परपर्यायें घड़े की कही जा सकती हैं। जबतक उन परपर्यायोंका ज्ञान न होगा तबतक घड़ेके यथार्थ
१. - पर्यय म. ३ । २. स्य भावात् भ. १, २, प. २ । ३. -स्य तत्त्व-म. २ ।
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