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________________ -का० ५५. ६ ३४८] जैनमतम्। -३३९ वस्त्वाश्रयत्वात्कथं तस्य संबन्धिनो व्यपदिश्यन्ते । ६३४७. उच्यते, इह द्विधा संबन्धोऽस्तित्वेन नास्तित्वेन च। तत्र स्वपर्यायैरस्तित्वेन संबन्धः यथा घटस्य रूपादिभिः । परपर्यायैस्तु नास्तित्वेन संबन्धस्तेषां तत्रासंभवात्, यथा घटावस्थायां मृदूपतापर्यायेण, यत एवं च ते तस्य न सन्तीति नास्तित्वसंबन्धेन संबद्धाः, अतएव च ते परपर्याया' इति व्यपदिश्यन्ते। ३४८. ननु ये यत्र न विद्यन्ते ते कथं तस्येति व्यपदिश्यन्ते, न खलु धनं दरिद्रस्य न विद्यत इति तत्तस्य संबन्धि व्यपदेष्टुं शक्यम्, मा प्रापल्लोकव्यवहारातिक्रमः, तदेतन्महामोहमूढमनस्कतासूचकं, यतो यदि नाम ते नास्तित्वसंबन्धमधिकृत्य तस्येति न व्यपदिश्यन्ते, तर्हि सामान्यतस्ते परवस्तुष्वपि न सन्तीति प्राप्तम्, तथा च ते स्वरूपेणापि न भवेयुर्न चैतदृष्टमिष्टं वा, तस्मादवश्यं ते नास्तित्वसंबन्धमधिकृत्य तस्येति व्यपदेश्याः, धनमपि च नास्तित्वसंबन्धमधिकृत्य दरिद्रस्येति व्यपदिश्यत एव, तथा च लोके वक्तारो भवन्ति 'धनमस्य दरिद्रस्य न विद्यते' इति। यदपि चोक्तं 'तत्तस्येति व्यपदेष्टुं न शक्यं' इति, तत्रापि तदस्तित्वेन तस्येति व्यपदेष्टुं न शक्यं, न पुनर्नास्तित्वेनापि, ततो न कश्चिल्लोकव्यवहारातिक्रमः। अस्तित्व तो उसका धर्म हो सकता है परन्तु पट आदि परपदार्थोंका नास्तित्व तो पट आदि परपदार्थों के आधीन है अतः उसे घटका धर्म कैसे कह सकते हैं ? जब वे परपर्यायें हैं तो उसकी कैसे कही जा सकती हैं ? $३४७. समाधान-वस्तुसे पर्यायोंका सम्बन्ध दो प्रकारसे होता है-एक अस्तित्व रूपसे और दूसरा नास्तित्व रूपसे । स्वपर्यायोंका तो अस्तित्व रूपसे सम्बन्ध है तथा परपर्यायोंका नास्तित्व रूपसे। जिस तरह रूप-रसादिका घड़ेमें अस्तित्व है अतः उनका अस्तित्वरूप सम्बन्ध है उसी तरह स्वपर्यायें घड़ेमें पायी जाती हैं अतः उनका भी अस्तित्वरूप सम्बन्ध है । परपर्यायें तो घड़ेमें नहीं पायी जाती अतः उनका नास्तित्व रूपसे सम्बन्ध है । जिस प्रकार घटावस्थामें मिट्टोको पिण्ड आदि पर्यायें नहीं पायी जाती अतः उनका घड़ेके साथ नास्तित्वरूपसे सम्बन्ध है। जिस कारणसे वे परपर्यायें उस पदार्थमें नहीं रहती असत् हैं इसीलिए तो वे परपर्यायें कही जाती हैं। यदि वे उसमें अपना अस्तित्व रखतीं तो वे स्वपर्याय ही हो जातीं। परको अपेक्षा नास्तित्व नामका धर्म तो घट आदि वस्तुओंमें पाया ही जाता है। यदि घड़ा पटरूपसे असत् न हो तो वह भी पटरूप हो जायगा । अतः परपर्यायोंसे वस्तुका नास्तित्व रूप सम्बन्ध मानना ही चाहिए। ३४८. शंका-जो परपर्यायें उस वस्तुमें पायी ही नहीं जातीं वे उसको कैसे कही जा सकती हैं ? दरिद्रीके धन नहीं पाया जाता तो क्या कहीं भी 'दरिद्रीका धन' ऐसा व्यवहार होता है ? जो चीज़ जहां नहीं पायी जातो उसका उसमें सम्बन्ध जोड़ना तो स्पष्ट ही लोकव्यवहारका विरोध करना है। आपको इस तरह लोकव्यवहारको नहीं कुचलना चाहिए। समाधान-आपकी यह शंका महामूर्खता तथा पागलपनकी निशानी है, यदि परपर्यायें नास्तित्व रूपसे भी घड़ेकी न कही जायें; तो वे परपर्यायें सामान्यरूपसे तो परवस्तुमें भी नहीं रहेंगी; क्योंकि परवस्तुमें तो वे स्वपर्याय होकर रह सकती हैं सामान्यपर्याय होकर नहीं। अतः जब घड़ेमें तथा अन्य परवस्तुओंमें उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहा तब उन्हें पर्याय ही कैसे कह सकते हैं ? परन्तु उन्हें पर्याय मानना इष्ट है तथा अनुभवका विषय भी है। इसीलिए उन परपर्यायोंको नास्तिरूपसे घड़ेकी अवश्य ही कहना चाहिए। यदि घड़ेमें उनका अस्तित्व कहा जाता १. एव ते म.२ । २. -पर्यया भ.२ । ३. - न्त कथं ते त-म.२। ४.-स्य सद्विद्य-भ. । ५.- वश्यं नास्ति-म.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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