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________________ ३३८ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५५. ६ ३४२. $३४२. मुक्तात्मनि तु सिद्धत्वं साधनन्तत्वं ज्ञानवर्शनसम्यक्त्वसुखवीर्याण्यनन्तद्रव्यक्षेत्रकालसर्वपर्यायज्ञातत्वशित्वानि अशरीरत्वमंजरामरत्वमरूपरसगन्धस्पर्शशब्दत्वानि निश्चलत्वं नीरुक्त्वमक्षयत्वमव्याबाधत्वं प्राक्संसारावस्थानुभूतस्वस्वजीवधर्माश्चेत्यादयः। ६३४३. धर्माधर्माकाशकालेष्वसंख्यासंख्यानन्तप्रदेशाप्रदेशत्वं सर्वजीवपुद्गलानां गतिस्थित्यवगाहवर्तनोपग्राहकत्वं तत्तदवच्छेदकावच्छेद्यत्वमवस्थितत्वमनाद्यनन्तत्वमरूपित्वमगुरुलघुतैकस्कन्धत्वं मत्यादिज्ञानविषयत्वं सत्त्वं द्रव्यत्वमित्यादयः। ३४४. पौद्गलिकद्रव्येषु घटदृष्टान्तोक्तरीत्या स्वपरपर्यायाः। शब्देषु चोदात्तानुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषवद्घोषताल्पप्राणमहाप्राणताभिलाप्यानभिलाप्यार्थवाचकावाचकताक्षेत्रका - लादिभेदहेतुकतत्तदनन्तार्थप्रत्यायनशक्त्यादयः। ६३४५. आत्मादिषु च सर्वेषु नित्यानित्यसामान्यविशेषसदसदभिलाप्यानभिलाप्यत्वात्मकता परेभ्यश्च वस्तुभ्यो व्यावृत्तिधर्माश्चावसेयाः। ३४६. आह-ये स्वपर्यायास्ते तस्य संबन्धिनो भवन्तु, ये तु परपर्यायास्ते विभिन्न ३४२. मुक्त जीवोंमें सिद्धत्व, सादि-अनन्तत्व-सिद्ध अवस्थाकी शुरूआत तो होती है पर अनन्त नहीं होता, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अनन्त द्रव्य क्षेत्र तथा कालमें रहनेवाली समस्त पर्यायोंका जानना देखना, अशरीरी होना, बुढ़ापा मृत्यु आदिसे रहित होना, रूप रस गन्ध स्पर्श और शब्दसे शून्य होना, निश्चलत्व, रोग रहित होना, अविनाशी होना, निर्बाध रूपसे सुखी होना, संसारी अवस्थामें रहनेवाले जीवद्रव्यके अपने-अपने जीवत्व आदि सामान्य धर्मोंका पाया जाना आदि अनेकों धर्म पाये जाते हैं। अतः जीवद्रव्यमें इनकी अपेक्षा अस्तित्व तथा इनसे भिन्न पररूपोंकी अपेक्षा नास्तित्व आदिका विचार कर लेना चाहिए। ६३४३. धर्म अधर्म आकाश तथा काल द्रव्यमें क्रमशः असंख्यात असंख्यात अनन्त तथा एकप्रदेशका होना, समस्त जीव और पुद्गलोंके चलने ठहरने अवकाश पाने तथा वर्तना परिणमन-. में अपेक्षा सहकारी होना, भिन्न-भिन्न पदार्थों की अपेक्षा घटाकाश, मठाकाश, घटकाल प्रातःकाल आदि व्यवहारोंका पात्र होना, अवस्थित रहना, अनादि अनन्त होना, अरूपित्व-अमूर्तत्व, अगुरुलघुत्व न कम होना और न बढ़ना ही, अखण्ड एक द्रव्य होना, मतिज्ञान आदि ज्ञानोंका विषय होना, सत्ता, द्रव्यत्व आदि अनेकों धर्म पाये जाते हैं। ३४४. पुद्गल द्रव्यमें घड़ेके दृष्टान्तमें कहे गये अनन्त स्व-परधर्म पाये जाते हैं। शब्दमें उदात्तत्व, अनुदात्तत्व, स्वरितत्व, विवृतत्व संवृतत्व, घोषता, अघोषता, अल्पप्राणता, महाप्राणता, कहे जाने लायक पदार्थका कथन करना तथा जिसका कथन नहीं हो सकता हो उसका कथन नहीं करना, भिन्न-भिन्न समयोंमें तथा भिन्न-भिन्न क्षेत्रोंमें बदलनेवाली भाषाओंके अनुसार अनन्त पदार्थों के कथन करनेकी शक्ति रखना आदि बहुत-से धर्म हैं। ३४५. आत्मादि सभी पदार्थों में नित्यत्व, अनित्यत्व, सामान्य, विशेष, सत्त्व, असत्त्व, वक्तव्यत्व, अवक्तव्यत्व तथा अनन्त परपदार्थोंसे व्यावत्त होनेका स्वभाव होना आदि अनेकों धर्मोंका सद्भाव है। $३४६. शंका-आपने जिस-जिस प्रकारसे जिन-जिन स्वपर्यायोंका विवेचन किया है वे सब स्वपर्यायें तो वस्तुके धर्म अवश्य हो सकती हैं तथा हैं भी परन्तु परपर्यायें तो भिन्न वस्तुओं के आधीन हैं अतः उन्हें वस्तुका धर्म कैसे कह सकते हैं ? घड़ेका अपने स्वरूप आदिकी अपेक्षा १. स्थानभूत-म. २ । २. -वसंख्यातप्रदेशवत्त्वं सर्व-भ. २-वसंख्यानन्तप्रदेशत्वं सर्व-क., म. १, प१,२ । ३. --यत्वं द्रव्य -म. २।४.-द्रव्ये तु घट- भ.२ । ५. - पर्यया - भ. २ । ६. स्वपरपर्ययै- म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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