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षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५५. १ ३३५ - कृशतासमताविषमतासूक्ष्मताबादरतातीव्रताचाकचिक्य - सौम्यतापथतासंकीर्णतानीचतोच्चताविशालमुखतादयः प्रत्येकमनन्तविधाः स्युः। ततः स्थूलतादिद्वारेणाप्यनन्ता धर्माः। संबन्धतस्त्वनन्तकालेनानन्तः परैर्वस्तुभिः समं प्रस्तुतघटस्याधाराधेयभावोऽनन्तविधो भवति, ततस्तदपेक्षयाप्यनन्ताः स्वधर्माः। एवं स्वस्वामित्वजन्यजनकत्वनिमित्तिनैमित्तकत्वषोढाकारकत्वप्रकाश्यप्रकाश. कत्वभोज्यभोजकत्ववाह्यवाहकत्वाश्रयाश्रयिभाववध्यवधकत्वविरोध्यविरोधकत्वज्ञेयापकत्वादि - संख्यातीतसंबन्धैरपि प्रत्येकमनन्ता धर्मा ज्ञातव्याः।
३३५. तथा ये येऽत्र घटस्य स्वपरपर्यायो अनन्तानन्ता ऊचिरे, तेषामुत्पादा विनाशाः स्थितयश्च पुनः पुनर्भवनेनानन्तकालेनानन्ता अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च, तदपेक्षयाप्यनन्ता धर्माः।
६३३६. एवं पीतवर्णादारभ्य भावतोऽनन्ता धर्माः।
$३३७. तथा द्रव्यक्षेत्रादिप्रकारैये ये स्वधर्माः परधर्माश्चाचचक्षिरे तैरुभयैरपि युगपदादिष्टो घटोऽवक्तव्यः स्यात्, यतः कोऽपि स शब्दो न विद्यते येन घटस्य स्वधर्माः परधर्माश्चोच्यमाना द्वयेऽपि युगपदुक्ता भवन्ति, शब्देनाभिधीयमानानां क्रमेणैव प्रतीतेः। अपेक्षा पतलापन किसीको अपेक्षा समानता, असमानता, सूक्ष्मता, स्थूलता, तीव्रता, चकचकाहट, सुन्दरता, चौड़ापन, सकरापन, नीचता, उच्चता, विशालमुखपना आदि अनन्त ही प्रकारके धर्म पाये जाते हैं । इस तरह इन स्थूलता आदि धर्मोको अपेक्षा भी घड़ेमें अनन्त स्वधर्म हैं । सम्बन्धको दृष्टि से अनन्त कालमें अनन्त परवस्तुओंके साथ प्रस्तुत घटका आधाराधेयभाव अनन्त प्रकारका होता है अतएव उस दृष्टिसे भी घटके अनन्त स्वधर्म होते हैं। इसी तरह इस सोनेके घड़ेका अपने स्वामीके साथ स्वस्वामिभाव सम्बन्ध, पैदा करनेवाले सुनारके साथ जन्यजनक भाव, स्वामी में धनी आदि व्यवहार करानेमें या जल आदि खींचनेमें निमित्त नैमित्तिक भाव, किसी जल लाने आदि पदार्थोंसे कर्ता, कर्म, करण आदि छहों कारक रूप सम्बन्ध, दीपक आदिसे प्रकाश्य-प्रकाशकभाव, जिसके उपभोगमें आता है उस भोक्तासे भोज्य-भोजकभाव, जिस जल दूध आदि पदार्थों को ढोता है उससे वाह्यवाहकभाव अथवा जिन खच्चरों आदिसे या पानी भरनेवालोंके सिरसे ढोया जाता है उनसे वाह्यवाहक भाव, जिस स्थानपर रखा जाता है या उसमें जो चीज रखी जाती है उससे आधार-आधेयभाव, जो उस घड़ेको फोड़ता है तथा जिसके सिरमें लगनेसे उसका कपाल फूट जाता है उनसे वध्यघातकभाव, उस घड़े के कारण जिनसे विरोध होता है या उसमें रखने जो वस्तु खराब हो जाती है उससे विरोध्यविरोधकभाव, तथा ज्ञानके साथ ज्ञेयज्ञापक भाव आदि असंख्य सम्बन्ध हैं। इन सम्बन्धोंकी अपेक्षा एक ही घड़ेमें अनन्त स्वभाव हो जाते हैं।
६३३५. इसी तरह घड़ेकी जिन-जिन स्व-परपर्यायोंका कथन किया है उनके उत्पाद, विनाश तथा स्थिति रूप धर्म अनादिकालसे बराबर प्रतिक्षण होते आ रहे हैं पहले भी होते थे तथा आगे भी होते जायेंगे। इन त्रैकालिक उत्पाद, विनाश तथा स्थिति रूप त्रिपदीसे भी घड़े अनन्त धर्म सिद्ध होते हैं।
३३६. इसी तरह पीलेपन आदि पर्यायोंसे भी अनन्त धर्म होते हैं। इस प्रकार एक ही घड़ेमें स्वधर्मों की अपेक्षा अस्तित्व तथा परधर्मों की अपेक्षा नास्तित्व समझना चाहिए।
जब ऊपर कहे गये स्वद्रव्य क्षेत्र आदि तथा परद्रव्य क्षेत्र आदिकी अपेक्षा घटको एक ही शब्दसे एक ही साथ कहनेकी इच्छा होती है तो घड़ा अवक्तव्य हो जाता है, क्योंकि संसारमें ऐसा कोई शब्द ही नहीं है जिससे घड़ेके स्व-परधर्मोंका युगपत् प्रधान भावसे कथन किया
१. -क्य सो आ., क.। २. संबन्धस्त्वनन्तानन्तकालतोऽनन्तैः म. २। ३. -भावेऽनन्त-म. २। ४. -ज्ञायकः-म.१,२, प.१,२। ५.-पर्यया म. २। ६. नानन्तानन्तका-म.२ ।
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