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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ५५. ९ ३२८ - $ ३२८. परिमाणतश्च तत्तद्रव्यापेक्षया तस्याणुत्वं महत्त्वं ह्रस्वत्वं दीर्घत्वं चानन्तभेदं स्यादित्यनन्ताः स्वधर्माः । ये सर्वद्रव्येभ्यो व्यावृत्त्या तस्ये परपर्यायाः संभवन्ति ते सर्वे पृथक्त्वतो ज्ञातव्याः । दिग्देशतः परत्वापरत्वाभ्यां तस्य घटस्यान्यान्यानन्तद्रव्यापेक्षयासन्नतासन्नतरतासन्नतमता दूरता दूरतरता दूरतमता एकद्वयाद्य संख्यपर्यन्त योजनैरासन्नता दूरता च भवतीति "स्व पर्याया अनन्ताः । अथवा परवस्त्वपेक्षया स पूर्वस्यां तदन्यापेक्षया पश्चिमायां स इत्येवं दिशो विदिशश्चाश्रित्य दूरासन्नादितयाऽसंख्या: 'स्वपर्यायाः । ३३४ $ ३२९. कालतश्च परत्वापरत्वाभ्यां सर्वद्रव्येभ्यः क्षणलवघटी दिनमासवर्षयुगादिभिर्घटस्य पूर्वत्वेन परत्वेन चानन्तभेदेनानन्ताः स्वधर्माः । ६ ३३०. ज्ञानतोऽपि घटस्य ग्राहकैः सर्वजीवानामनन्तैर्मत्या दिज्ञानैर्विभङ्गाद्यज्ञानैश्व स्पष्टास्पष्टस्वभावभेदेन ग्रहणाद्ग्राह्यस्याप्यवश्यं स्वभावभेदः संभवी, अन्यथा तद्ग्राहकाणामपि स्वभावभेदो न स्यात्तथा च तेषामैक्यं भवेत् । ग्राह्यस्य स्वभावभेदे च ये स्वभावाः ते स्वधर्माः । सर्वजीवानामपेक्षयाल्पबहुबहुत राद्यनन्त भेदभिन्नसुखदुःखहानोपादानोपेक्षा गोचरेच्छा पुण्यापुण्य ३२८. परिमाण मापकी अपेक्षा भी घड़े में स्वधर्म और परधमं होते हैं। घड़ा किन्हीं बड़े मकान आदि द्रव्योंकी अपेक्षा छोटा, छोटे लोटा आदिकी अपेक्षा बड़ा, लम्बा ठिगना आदि अनन्त प्रकारके मापवाला कहा जा सकता है ये सब स्वधर्मं हैं तथा अन्य परधर्म । घड़ा जिन समस्त परपदार्थोंसे पृथक् है. वे सब परपर्याय हैं तथा जिनसे पृथक् नहीं है वे स्वपर्याय हैं । यह पृथक्त्वकी अपेक्षा स्व-परधर्मोंका निरूपण है उसी घड़े में अन्य अनन्त द्रव्यों की अपेक्षा पास, बहुत पास, अत्यन्त पास, दूर, बहुत दूर, अत्यन्त दूर, एक योजन दो योजन आदि अनन्त योजन दूर, तथा एक दो या चार योजन पास इत्यादि दिशा और देशकी अपेक्षा अनन्त ही व्यवहार होते हैं ये सभी स्वधर्मं हैं । अथवा, वही घड़ा किसी वस्तुकी अपेक्षा पूर्वमें, किसीकी अपेक्षा पश्चिममें किसीकी अपेक्षा उत्तरमें तो किसीको अपेक्षा दक्षिण में रहता है । तात्पर्य यह कि दिशाओं और विदिशाओं की अपेक्षा परत्व और अपरत्वका विचार करनेसे असंख्य स्वपर्यायें हो सकती हैं । $ ३२९. कालकी अपेक्षा वही घड़ा किसीसे एक क्षण पुराना है तो किसीसे दो क्षण, किसीसे एक घड़ी दो घड़ी एक दिन माह वर्ष युगादि पुराना है, तो वही घड़ा किसीसे एक चो चार क्षण नया किसीसे एक दिन माह वर्षं या युग भर नया होता है । तात्पर्य यह कि घड़ा अन्य पदार्थोंकी अपेक्षा एक क्षणसे लेकर अनन्त वर्ष तकका नया या पुराना होता है अतः ये सब उसके स्वधर्म हैं। ९ ३३०. ज्ञानकी दृष्टिसे वही घड़ा संसारके अनन्त जीवोंके अनन्त ही प्रकारके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, विभंगादि अवधिज्ञान आदिका स्पष्ट या अस्पष्ट रूपसे विषय होता है । ग्राहक ज्ञानमें भेद होने से उसकी अपेक्षा ग्राह्य विषयभूत पदार्थ में भी भेद होता ही है । यदि पदार्थं एकरूप ही रहे तो उसको जाननेवाले ज्ञानों में भी स्वभाव भेद नहीं होगा, वे सर्वथा एकरूप ही हो जायेंगे । इस तरह घड़ेको जाननेवाले अनन्त ज्ञानोंकी अपेक्षा घड़े में भी अनन्त ही स्वभाव भेद हैं और ये सब उसके स्वधर्मं हैं। एक ही घड़ा किसीको थोड़ा सुख किसीको अधिक तथा किसीको बहुत अधिक सुख उत्पन्न करता है। इस तरह अनन्त जीवोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकारके ही सुख-दुःखको उत्पन्न करनेके कारण, अनन्त जीवोंको हान उपादानता उपेक्षा बुद्धिका विषय होनेसे, अनन्त जीवोंकी अनन्त इच्छाओंका अवलम्बन होनेसे, अनन्त ही प्रकारके पुण्य और पापके बन्धका कारण होनेसे, अनन्त ही जीवोंपर अपना भिन्न-भिन्न असर डालनेके कारण, उसे देखकर किसीको १. तस्यापरपर्या - म २ । २. स्वपर्यया म. २ । ३. तदनपेक्षया म. २ । ४. स्वपर्यया भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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