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________________ - का० ५५.६३२७] जैनमतम्। ३३३ स्कन्धेऽष्टावपि स्पर्शाः प्राप्यन्त इति सिद्धान्ते 'प्रोचानम् । तेनात्रापि कलशेऽष्टानामभिधानम् । ३२७. अथवा सुवर्णद्रव्येऽप्यनन्तकालेनै पञ्चापि वर्णा द्वावपि गन्धौ षडपि रसा अष्टावपि स्पर्शाश्व सर्वेऽपि तरतमयोगेनानन्तशो भवन्ति । तत्तदपरापरवर्णादिभ्यो व्यावृत्तिश्च भवति । तैदपेक्षयापि स्वपरधर्मा अनन्ता अवबोधव्याः। शब्दतश्च घटस्य नानादेशापेक्षया घटाधनेकशब्दवाच्यत्वेनानेके स्वधर्मा घटादितत्तछब्दानभिधेयेभ्योऽपरद्रव्येभ्यो व्यावृत्तत्वेनानन्ताः परधर्माः । अथवा तस्य घटस्य ये ये स्वपरधर्मा उक्ता वक्ष्यन्ते च तेषां सर्वेषां वाचका यावन्तो ध्वनयस्तावन्तो घटस्य स्वधर्माः, तदन्यवाचकाच परधर्माः। संख्यातश्च घटस्य तत्तदपरापरद्रव्यापेक्षया प्रथमत्वं द्वितीयत्वं ततीयत्वं यावदनन्ततमत्वं स्यादित्यनन्ताः स्वधर्माः, तत्तत्संख्यानभिधेयेभ्यो व्यावृत्तत्वेनानन्ताः परधर्माः। अथवा परमाणुसंख्या पलादिसंख्या वा यावती तत्र घटे वर्तते सा स्वधर्मः, तत्संख्यारहितेभ्यो व्यावृत्तत्वेनानन्ताः परपर्यायाः। अनन्तकालेन तस्य घटस्य सर्वद्रव्यः समं संयोगवियोगभावेनानन्ताः स्वधर्माः, संयोगवियोगाविषयीकृतेभ्यो व्यावृत्तस्यानन्ताः परधर्माश्च। होते हैं । इनमें जो स्पर्श जिस रूपसे उसमें पाये जाते हैं उनकी अपेक्षा अनन्त स्वपर्यायें तथा जो स्पर्श नहीं पाये जाते उनकी अपेक्षा अनन्त ही परपर्यायें समझ लेनी चाहिए । सिद्धान्तमें स्पष्ट कहा है कि-एक अनन्त प्रदेशवाले स्कन्ध में भारी आदि आठों ही स्पर्श पाये जाते हैं, अतः इस घड़ेमें भी आठों ही स्पर्शका कथन किया गया है। ३२७. अथवा उसी सुवर्ण द्रव्यमें, जिसका कि घड़ा बनाया गया है, अनादिकालसे अभी तक पांचों ही रंग, दोनों गन्ध, छहों रस तथा आठों ही स्पर्श तरतम रूपसे अनन्त ही प्रकारके हुए हैं । तो उसमें जिस जातिका रूप-रस-गन्ध तथा स्पर्श होगा उसकी अपेक्षा अनन्त स्वधर्म तथा जो रूपादि उसमें नहीं रहते होंगे उनको अपेक्षा अनन्त ही परधर्म समझ लेने चाहिए । घड़ेको भारतवर्षके विभिन्न प्रदेशोंमें घड़ा, झंझर, हंडिया, कलश आदि अनेक शब्दोंसे कहते हैं इसी तरह विदेशोंमें उसे पाट ( Pot ) आदि अनेक शब्दोंसे पुकारते हैं इस तरह अनेकों शब्दोंके द्वारा वाच्य होनेसे अनेक ही स्वधर्म होंगे तथा जिन पटादि अनन्त पदार्थों में घटके वाचक शब्दोंका प्रयोग नहीं होता उन सबसे घड़ा व्यावृत्त होता है अतः अनन्त ही परधर्म होते हैं । अथवा, घड़ेके जितने स्वधर्म कहे हैं तथा कहे जायेंगे उनके वाचक जितने भी शब्द हैं उतने ही घड़ेके स्वधर्म हैं तथा अन्य पदार्थोके वाचक जितने शब्द हैं उतने ही परधर्म हैं। संख्याकी अपेक्षा भी घड़ेमें स्वधर्म और परधर्मका इस प्रकार विचार करना चाहिए। भिन्न-भिन्न द्रव्योंकी अपेक्षा घड़ेमें पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा अनन्तसंख्या तकके व्यवहार हो सकते हैं ये सभी स्वधर्म हैं तथा इन संख्याओंके अविषय भूत पदार्थोंसे व्यावृत्त होनेके कारण वे सब परधर्म हैं। अथवा, घड़ेके परमाणुओंको जितनी संख्या तथा उसके वजनके रत्तियोंकी जितनी संख्या है वह संख्या स्वधर्म है और वह संख्या जिन अनन्त पदार्थों में नहीं पायी जाती वे सब परधर्म हैं। अनन्तकालसे उस घड़ेका सभी द्रव्योंके साथ संयोग तथा विभाग होता रहा है अतः वे संयोग और विभाग स्वधर्म हैं तथा जिनमें वे संयोग और विभाग नहीं पाये जाते उन अनन्त पदार्थोंसे घड़ेकी व्यावृत्ति होती है अतः वे परधर्म हैं। १. "अत्र च स्निग्धरूक्षशीतोष्णाश्चत्वार एवाणषु संभवन्ति, स्कन्धेष्वष्टावपि-यथासंभवमभिधानीयाः।" -तस्वार्थाषि. भा. टी.५।२३। २. -काले पञ्चापि भ. २ । ३. तत्तदपेक्षयापि म. ३। ४. -वन्तो घटस्य भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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