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________________ ३३२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५५. ६३२६तयास्ति न पुनरन्यर्तुनिष्पन्नतया। तत्रापि नवत्वेन विद्यते न पुनः पुराणत्वेन । तत्राप्यद्यतनत्वेनास्ति न पुनरनद्यतनत्वेन । तत्रापि वर्तमानक्षणतयास्ति न पुनरन्यक्षणतया । एवं कालतोऽसंख्येयाः स्वपर्यायाः, एकस्य द्रव्यस्यासंख्यकालस्थितिकत्वात् । अनन्तकालवतित्वविवक्षायां तु तेऽनन्ता अपि वाच्याः। परपर्यायास्तु विवक्षितकालादन्यकालवर्तिद्रव्येभ्यो अनन्तेभ्यो व्यावृत्तत्वेनानन्ता एव। ६३२६. भावतः पुनः स पीतवर्णेनाऽस्ति न पुनर्नीलादिवर्णैः। पीतोऽपि सोऽपरपीतद्रव्यापेक्षयकगुणपीतः, स एव च तदपरापेक्षया द्विगुणपीतः, स एव च तदन्यापेक्षया त्रिगुणपीतः, एवं तावद्वक्तव्यं यावत्कस्यापि पोतद्रव्यस्यापेक्षयानन्तगुणपीतः। तथा स एवापरापेक्षयकगुणहीनः, तदन्यापेक्षया द्विगुणहीन इत्यादि तावद्वक्तव्यं यावत्कस्याप्यपेक्षयानन्तगुणहीनपीतत्वेऽपि स भवति । तदेवं पीतत्वेनानन्ताः स्वपर्याया लब्धाः । पीतवर्णवत्तरतमयोगेनानन्तभेदेभ्यो नीलादिवर्णेभ्यो व्यावृत्तिरूपाः परपर्याया अप्यनन्ताः। एवं रसतोऽपि स्वमधुरादिरसापेक्षया पीतत्ववत्स्वपर्याय अनन्ता ज्ञातव्याः, 'नीलादित्ववत् क्षारादिपररसापेक्षया परपर्याया अप्यनन्ता अवसातव्याः। एवं सुरभिगन्धेनापि स्वपरपर्याया अनन्ता अवसातव्याः। एवं गुरुलधुमृदुखरशीतोष्णस्निग्धरूक्षस्पर्शाष्टकापेक्षयापि तरतमयोगेन प्रत्येकमनन्ताः स्वपरपर्याया अवगन्तव्याः, यत एकस्मिन्नप्यनन्तप्रदेशके अतीत आदि वर्षोंकी दृष्टिसे असत् । इस वर्षमें भी वह वसन्त ऋतुमें उत्पन्न होनेके कारण सत् है तथा अन्य ऋतुओंकी दृष्टिसे असत् । वसन्त ऋतुमें भी वह नया है अतः नूतन अवस्थाकी दृष्टिसे सत् है तथा जीर्ण या पुरानी अवस्थाकी दृष्टिसे असत्। नया होकर भी वह आज ही बनाया गया है अतः आजकी दृष्टि से सत् है कलकी दृष्टिसे असत् । आज भी वह अभी-अभी बनाया गया है अतः वर्तमान क्षणरूपसे सत् है तथा अन्य क्षणोंकी दृष्टिसे असत् । इस तरह कालकी दृष्टिसे असंख्य स्वपर्यायें होती हैं, क्योंकि एक द्रव्य असंख्य कालोंमें अपनी स्थिति रखता है। अनन्तकालकी विवक्षासे तो द्रव्य अनन्तकाल तक ठहरनेवाला है अतः अनन्त ही स्वपर्यायें हैं। विवक्षित कालसे भिन्न अन्य अनन्तकालोंसे तथा उनमें रहनेवाले अनन्त ही द्रव्योंसे घड़ा व्यावृत्त रहता है अतः परपर्यायें भी अनन्त ही हैं। ६३२६. भावकी दृष्टिसे घड़ा पीला है अतः पीले रंगकी अपेक्षा सत् है तथा अन्य नीलेलाल आदि रंगोंसे असत् । घड़ेका वह पीलापन किसी पीले द्रव्यसे दुगुना पीला है किसीसे तिगुना किसीसे चौगुना इस तरह किसीसे अत्यन्त कम पीले द्रव्यसे अनन्तगुना पीला भी होगा। इसी तरह घड़ेका वह पीलापन किसी एक गुना कम पीला है किसीसे दोगुना कम पीला है किसीसे तीनगुना कम । इस तरह किसी परिपूर्ण पीले द्रव्यसे अनन्तगुणा कम पीला भी तो है । तात्पर्य यह कि तरतम रूपसे पीलेपनके ही अनन्त भेद हो सकते हैं, वे सब उसकी स्वपर्यायें हैं। तथा पीलेपनकी ही तरह नीले और लाल आदि रंग भी तरतम रूपसे अनन्त प्रकारके होते हैं उन सब अनन्तनीलादि रंगोंसे इस घड़ेका पीलापन पृथक् है अतः परपर्यायें भी अनन्त ही हैं। इसी तरह उस घड़ेका अपना जो भी मीठा आदि रस होगा उसके भी रूपकी तरह तरतम रूपसे अनन्त भेद होंगे, ये सभी उसकी स्वपर्यायें हैं तथा नील आदि पररूपोंकी तरह खारे आदि पररस भी तरतम रूपसे अनन्त हैं, उन सबसे इसका रस व्यावृत्त होता है अतः परपर्यायें भी अनन्त हैं। इसी तरह उसको सुगन्धके तरतम रूपसे अनन्त ही भेद होंगे जो कि उसकी स्वपर्यायें कहे जायेंगे तथा जो गन्ध उसमें नहीं पायी जाती उसके अनन्त भेद परपर्याय होंगे। इसी तरह भारी, हलका, कोमल, खुरदरा, ठण्डा, गरम, चिकना और रूखा इन आठ स्पर्शोंके भी प्रत्येकके तरतम रूपसे अनन्त भेद १. नीलादिवत् म.२ । २. अवेतव्याः भ. १,२। अचेतन्याः क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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