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________________ ३३० षड्दर्शनसमुच्चये [का० ५५. ६ ३२४रूपतयास्ति न पुनर्मूत्त्वादिभिः। धातुरूपोऽपि सं सौवर्णत्वेनाऽस्ति न पुना राजतत्वादिभिः । सौवर्णोऽपि स घटितसुवर्णात्मकत्वेनास्ति न त्वघटितसुवर्णात्मकत्वादिना। घटितसुवर्णात्मापि देवदत्तघटितत्वेनास्ति न तु यज्ञदत्तादिघटितत्वादिना । देवदत्तघटितोऽपि पृथुबुध्नाद्याकारणास्ति न पुनर्मुकुटावित्वेन । पृथुबुध्नोदराद्याकारोऽपि वृत्ताकारेणास्ति नावृत्ताकारेण । वृत्ताकारोऽपि स्वाकारेणास्ति न पुनरन्यघटाद्याकारेण । स्वाकारोऽपि स्ववलिकैरस्ति न तु परदलिकैः। एवमनया दिशा परेणापि स येन येन पर्यायेण विवक्ष्यते स तस्य स्वपर्यायः, तदन्ये तुपरपर्यायाः । तदेवं द्रव्यतः स्तोकाः स्वपर्यायाः, परपर्यायास्तु व्यावृत्तिरूपा अनन्ता, अनन्तेभ्यो द्रव्येभ्यो 'व्यावृत्तत्वात् । ६ ३२४. क्षेत्रतश्च स त्रिलोकीवतित्वेन विवक्षितो न कुतोऽपि व्यावर्तते । ततः स्वपर्यायोऽस्ति न परपर्यायः । त्रिलोकीवर्त्यपि स तिर्यग्लोकवतित्वेनास्ति न पुनरूधिोलोकवतित्वेन। आकाशादि द्रव्योंकी दृष्टिसे असत् है। पोद्गलिक घड़ेका पौद्गलिकत्व ही स्वपर्याय है तथा जिन धर्म, अधर्म, आकाश और अनन्त जीव द्रव्योंसे घड़ा व्यावृत्त होता है वे सब अनन्त हो पर-पदार्थ परपर्याय हैं । घड़ा पोद्गलिक है धर्मादिद्रव्यरूप नहीं है । घड़ा पुद्गल होकर भी पार्थिव-पृथिवीका बना है जल आग या हवा आदिसे नहीं बना है। अतः पार्थिवत्व घड़ेकी स्वपर्याय है तथा जल आदि अनन्त परपर्याय हैं जिनसे कि घड़ा व्यावृत्त रहता है । इस तरह आगे भी जिस रूपसे घड़ेकी सत्ता हो उसे स्वपर्याय तथा जिससे घड़ा व्यावृत्त होता हो उन्हें परपर्याय समझ लेना चाहिए। घड़ा पार्थिव होकर भी धातुका बना हुआ है मिट्टी या पत्थरका नहीं है अतः वह धातुरूपसे सत् है मिट्टी या पत्थर आदि अनन्तरूपसे असत् है। घड़ा धातुका बना होकर भी सुवर्णका है चांदीपीतल-तांबे आदिका नहीं है अतः सुवर्ण रूपसे सत् है चांदी या पीतल सैकड़ों धातुओंकी दृष्टिसे असत् है। सोनेका होकर भी जिस सोनेकी डलीको गढ़ा गया है वह उस गढ़े गये सुवर्णको दृष्टिसे सत् है तथा नहीं गढ़े गये खदान आदिमें पड़े हुए अघटित सुवर्णको दृष्टिसे असत् है। गढ़े गये सुवर्णको दृष्टिसे होकर भी वह देवदत्तके द्वारा गढ़े गये उस सुवर्णकी दृष्टि से सत् है। यज्ञदत्त आदि सुनारोंके द्वारा गढ़े गये सुवर्णको दृष्टिसे असत् है। गढ़े हुए सुवर्णकी दृष्टिसे होकर भी वह मुंहपर सकरे तथा बीचमें चौड़े आकारसे सत् है तथा मुकुट आदिके आकारोंकी दृष्टिसे असत् है । घड़ा मुंहपर सकरा तथा बीचमें चौड़ा होकर भी वह गोल है अतः गोल आकारसे सत् है तथा अन्य लम्बे आदि आकारोंसे असत् है । गोल होकर भी घड़ा अपने नियत गोल आकारसे सत् है अन्य गोल घड़ोंके गोल आकारसे असत् है । अपने गोल आकारवाला होकर भी घड़ा अपने उत्पादक परमाणुओंसे बने हुए गोल आकारकी दृष्टिसे सत् है तथा अन्य परमाणुओंसे बने हुए गोल आकारसे असत् है । इस तरह घड़ेको जिस-जिस पर्यायसे सत् कहेंगे वे पर्यायें स्वपर्याय हैं तथा जिन अन्य पदार्थोंसे वह व्यावृत्त होगा वे सभी परपर्याय होंगी। इस तरह घड़की द्रव्यकी दृष्टिसे कुछ पर्यायें बतायों तथा स्वपर्यायें परपर्यायोंसे कम भी होती हैं। परपर्यायें तो अनन्त हैं क्योंकि अनन्त ही द्रव्योंसे वह घट व्यावृत्त होता है। ३२४. क्षेत्रकी दृष्टिसे जब घड़ेको त्रिलोकमें रहनेवाले रूपसे व्यापक क्षेत्र दृष्टिसे विचार करते हैं तो वह किसीसे व्यावृत्त नहीं होता अतः त्रिलोक रूप व्यापक क्षेत्रकी दृष्टिसे स्वपर्याय तो बन सकती है परपर्याय नहीं । यद्यपि अलोकाकाशमें घड़ा नहीं रहता अतः अलोका १. -कादिना भ. २। २. -ना घाटितोऽपि भ. ., प. १, २, भा., क. । ३.-श येन भ. २ । ४. पर्ययेण म. २ । ५. -पर्ययाः म. २। ६. स्वपर्ययाः म. २। ७. अनन्तेभ्यो व्या-म. १, २, प. १,२। ८. व्यावृत्तित्वात् आ., क.। ९. -तश्च त्रि-भा.२।१०.-योऽस्ति त्रि-म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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