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-का० ५५. ६३२३ ] जैनमतम् ।
३२९ योगादिति। अस्य च हेतोरसिद्धविरुद्धानकान्तिकादिदोषाणां सर्वथानवकाश एव प्रत्यक्षादिना प्रमा. णेनानन्तधर्मात्मकस्यैव सकलस्य प्रतीतेः।
३२३. ननु कथमेकस्मिन् वस्तुन्यनन्ता धर्माः प्रतीयन्त इति चेत् । उच्यते; प्रमाणप्रमेयरूपस्य सकलस्य क्रमाक्रमभाव्यनन्तधर्माक्रान्तस्यैकरूपस्य वस्तुनो यथैव स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रमातणां प्रतीतिर्जायमानास्ति तथैव वयमेते सौवर्णघटदृष्टान्तेन सविस्तरं दर्शयामः। विवक्षितो हि घटः स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैविद्यते, परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च न विद्यते, तथाहि-स घटो यदा सत्त्वजेयत्वप्रमेयत्वादिधर्मंश्चिन्त्यते तदा तस्य सत्त्वादयः स्वपर्याया एव सन्ति, न तु केचन परपर्यायाः, सर्वस्य वस्तुनः, सत्त्वादीन्धर्मानधिकृत्य सजातीयत्वाद्विजातीयस्यैवा. भावान्न कुतोऽपि व्यावृत्तिः। द्रव्यतस्तु यदा पौदगलिको घटो विवक्ष्यते, तदा स पौद्गलिकद्रव्यत्वेनाऽस्ति, धर्माधर्माकाशादिद्रव्यत्वैस्तु नास्ति । अत्र पौद्गलिकत्वं स्वपर्यायः, धर्मादिभ्योऽनन्तेभ्यो व्यावृत्तत्वेन परपर्याया अनन्ताः, जीवद्रव्याणामनन्तत्वात्, पौद्गलिकोऽपि स घटः पार्थिवत्वेनास्ति न पुनराप्यादित्वैः, अत्र पार्थिवत्वं स्वपर्यायः, आप्यादिद्रव्येभ्यस्तु बहुभ्यो व्यावृत्तिः ततः परपर्याया अनन्ताः। एवमग्रेऽपि स्वपरपर्यायव्यक्तिर्वेदितव्या। पार्थिवोऽपि स धातु
दृष्टान्त तो पक्षमें ही आ गये हैं, क्योंकि संसारके सभी चेतन-अचेतन पदार्थोंको पक्ष बनाया गया है। यह प्रमेयत्वहेतु असिद्ध विरुद्ध या व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाण अनन्तधर्मवाली ही वस्तुको विषय करते हैं। अतः इस प्रमाण प्रसिद्ध अनेकान्तको सिद्ध करनेके लिए प्रमेयत्व हेतु सर्वथा उपयुक्त है।
३२३. शंका-एक वस्तुमें परस्पर विरोधी अनन्तधर्म कैसे हो सकते हैं ? एक वस्तुको अनेकरूप मानना तो स्पष्ट ही विरोधी है ।
समाधान-सभी प्रमाण या प्रमेय रूप वस्तुमें स्व-पर द्रव्यकी अपेक्षा क्रम और युगपत् रूपसे अनेक धर्मोंकी सत्ता पायी जाती है। वस्तुकी अनेकान्तात्मकता तो सभी प्राणियोंको सदा अनुभवमें आती है । हम उसी सर्वप्रसिद्ध अनेकान्तात्मकताको सोनेके घड़ेके उदाहरणसे विस्तारपूर्वक समझाते हैं। देखो, अमुक घड़ा अपने द्रव्यमें है अपनी जगह है, अपने समयमें है, तथा अपनी पर्यायसे है दूसरे पदार्थों के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी दृष्टि से नहीं है। घड़ा घड़ारूप ही है कपड़ा या चटाई रूप नहीं है, वह अपनी जगह है कपड़े और चटाईकी जगह नहीं है, वह अपने समयमें है दूसरेके समय या अतीत-अनागत समयमें नहीं है, वह अपनी घट पर्यायमें है कपड़ा चटाई आदिकी हालतमें नहीं है। जिस समय उसी घड़ेका सत्त्व-ज्ञेयत्व या प्रमेयत्व आदि सामान्य धर्मोंकी दृष्टिसे विचार करते हैं तब वे सत्त्व आदि सामान्य धर्म घड़ेके स्वपर्याय रूम ही हो जाते हैं, उस समय कोई भी पर-पर्याय नहीं रहती, क्योंकि सत् ज्ञेय या प्रमेय कहनेसे सभी वस्तुओंका ग्रहण हो जाता है । सत्की दृष्टि से तो घट-पट आदि अचेतन तथा मनुष्य-पशु आदि चेतनमें कोई भेद नहीं है। सभी सत्की दृष्टिसे सजातीय हैं, कोई विजातीय नहीं है जिससे व्यावृत्ति की जाय। अतः घड़ेका सत् ज्ञेय प्रमेय आदि सामान्यदृष्टिसे विचार करनेपर सभी सत् रूपसे घड़ेके स्वपर्यायरूप फलित होते हैं सभी सजातीय हैं उस समय घड़ेकी किससे व्यावृत्ति की जाय ? व्यावृत्ति तो विजातीयसे होती है । सत् ज्ञेय आदिकी दृष्टिसे तो घड़ेका विजातीय कोई है ही नहीं। जब पुद्गल द्रव्यको दृष्टिसे घड़ेका विचार करते हैं तो घड़ा पुद्गल द्रव्यकी दृष्टिसे सत् है धर्म-अधर्म
१.-जन्तधर्माः आ., क. । २. “सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासात न चैव्र व्यवतिष्ठते ॥" -आप्तमी. श्लो. १५।-भावैर्न वि-भ. २, प. १, २। ३.-पर्ययाः भ. २। ४. स्वपर्ययः म.२ । ५. परपर्यया म. २।६.-पि घटः भ.२।
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