________________
षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ५५.६ ३२२प्रमाणम् । प्रमाणेतरव्यवस्थायाः' विसंवादाविसंवावलक्षणत्वादिति स्थितमेतत् -प्रत्यक्षं परोक्षं च द्वे एव प्रमाणे' । अत्र च मतिश्रु तावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानानां मध्ये मतिश्र ते परमार्थतः परोक्षं प्रमाणम्, अवधिमनःपर्यायकेवलानि तु प्रत्यक्षं प्रमाणमिति ।
६३२२. अथोत्तराधं व्याख्यायते । 'अनन्तधर्मकं वस्तु' इत्यादि । इह प्रमाणाधिकारे प्रमाणस्य प्रत्यक्षस्य परोक्षस्य च विषयस्तु ग्राह्यं पुनरनन्तधर्मकं वस्तु, अनन्तास्त्रिकालविषयत्वादपरिमिता धर्माः-स्वभावाः सहभाविनः क्रमभाविनश्च स्वपरपर्याया यस्मिस्तदनन्तधर्ममेव स्वार्थे कप्रत्ययेऽनन्तधर्मकमनेकान्तात्मकमित्यर्थः। अनेकेऽन्ता अंशा धर्मा वास्मास्वरूपं यस्य तदनेकान्तात्मकमिति व्युत्पत्तेः, वस्तु-सचेतनाचेतनं सर्व द्रव्यम्, अत्र अनन्तधर्मकं वस्त्विति पक्षः, प्रमाणविषय इत्यनेन प्रमेयत्वादिति केवलव्यतिरेको हेतुः सूचितः, अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणत्वाद्धेतोरन्तयाप्त्यैव साध्यस्य सिद्धत्वात् दृष्टान्तादिभिर्न प्रयोजनम्, यदनन्तधर्मात्मकं न भवति तत्प्रमेयमपि न भवति, यथा व्योमकुसुममिति. केवलो व्यतिरेकः, साधर्म्यदृष्टान्तानां पक्षकुक्षिनिक्षिप्तत्वेनान्वया. जिस तरह तिमिर रोगीको एक ही चन्द्रमा दो दिखाई देते हैं। उसका यह द्विचन्द्र ज्ञान चन्द्र अंशमें यथार्थ तथा अविसंवादी ज्ञान पैदा करनेके कारण प्रमाण है, और वही द्वित्व अंशमें विसंवादो होनेसे अप्रमाण है। चन्द्र तो है पर दो चन्द्र नहीं हैं। प्रमाणको व्यवस्था अविसंवादसे तथा अप्रमाणको व्यवस्था विसंवादसे होती है। जिस ज्ञानमें अविसंवादी अंश अधिक होंगे वह ज्ञान प्रमाण कहा जायेगा तथा जिसमें विसंवादो अंश अधिक होंगे वह अप्रमाण। जैसे कि कस्तूरीमें गन्ध उत्कट होनेसे वह गन्ध द्रव्य कहो जाती है। 'पर्वतपर चन्द्र ऊग रहा है' यह सत्य ज्ञान भी चन्द्रांशमें प्रमाण होकर भी 'पर्वतपर' इस अंशमें अप्रमाण है। अतः इस विवेचनसे यह बात सिद्ध हो जाती है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही प्रमाण हैं। मति-श्रत-अवधि-मनःपर्यय और केवलज्ञान इन पांच ज्ञानोंमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वस्तुतः तो परोक्ष हैं, तथा अवधि-मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं। हां, मतिज्ञानको लोक व्यवहारमें प्रत्यक्ष रूपसे प्रसिद्ध होनेके कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं।
६३२२. अब प्रमाणके विषयका निरूपण करते हैं-अनन्तधर्मवाली वस्तु प्रमेय है। इस प्रमाणके प्रकरणमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही प्रमाणोंका विषय जानने लायक अनन्तधर्मवाळा पदार्थ होता है। जिसमें अनन्त तीनों कालोंमें रहनेवाले अपरिमित सहभावी तथा क्रमभावी धर्मस्वभाव पाये जाते हैं वह वस्तु अनन्तधर्मक या अनेकान्तात्मक कही जाती है। अनन्तधर्मसे स्वार्थमें 'क' 'प्रत्यय होनेसे 'अनन्तधर्मक' शब्द सिद्ध होता है। अनेकान्तात्मक-अनेक अन्तधर्म या अंश हो जिसका आत्मा-स्वरूप हों वह पदार्थ अनेकान्तात्मक कहा जाता है । 'चेतन या अचेतन सभी वस्तुएं अनन्तधर्मवाली हैं। यह पक्ष है । 'प्रमाण विषयः' शब्दसे 'प्रमेयत्वात्-प्रमेय होनेसे' यह केवलव्यतिरेको हेतु सूचित होता है । हेतुका अविनाभाव ही एकमात्र असाधारण लक्षण है तथा पक्षमें ही साध्य और साधनके अविनाभावको ग्रहण करनेवाली अन्ताप्तिके बलसे ही हेतु साध्यका ज्ञान कराता है अतः उक्त अनुमानमें दृष्टान्त आदिकी कोई आवश्यकता नहीं है । 'जो अनन्तधर्मवाला नहीं है वह प्रमेय भी नहीं है जैसे कि 'आकाशका फूल' यह व्यतिरेक व्याप्ति ही प्रमेयत्वहेतुको पायी जाती है अतः यह केवलव्यतिरेको हेतु है । अन्वय
१.- न्याः संवादावि म. १, २, प. १, २, क.। २. "मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्"-त. सू. १९ । ३. "आद्ये परोक्षम्"-त. सू. १।११। ४. -नि प्रत्य-म. ।। ५. "प्रत्यक्षमन्यत्" -त. सू. १।१२। ६. ग्राह्यं तत्पुनः भ. २ । ७. "अन्तर्व्याप्त्यैव साध्यस्य सिद्धो बहिरुदाहृतिः । व्यर्था स्यात्तदसद्भावेऽप्येवं न्यायविदो विदुः ॥"-न्यायावता. श्लो. २० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org