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________________ -का० १५ १ ३२१] जैनमतम् । ३२७ $३२०. 'आप्रवचनाज्जातमर्थज्ञानमागमः, उपचारादाप्त वचनं च यथाऽस्त्यत्र निधिः, सन्ति मेर्वादयः। अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानोते यथाज्ञानं चाभिधत्ते, स आप्तो 'जनकतीर्थकरादिः । इत्युक्तं परोक्षम् । तेन। । "मुख्यसंव्यवहारेण संवादिविशदं मतम् । ज्ञानमध्यक्षमन्यद्धि, परोक्षमिति संग्रहः॥१॥ इति । यद्यथैवाविसंवादि प्रमाणं तत्तथा मतम् । विसंवाद्यप्रमाणं च तदध्यक्षपरोक्षयोः ।।२।।" [सन्मतितर्कटीका, पृ. ५९] ३२१. तत एकस्यैव ज्ञानस्य यत्राविसंवादस्तत्र प्रमाणता, इतरत्र च तदाभासता, यथा 'तिमिराद्युपप्लुतं ज्ञानं चन्द्रादावविसंवादकत्वात्प्रमाणं तत्संख्यादौ च तदेव विसंवादकत्वादक्योंकि वे सत् हैं' इन अनुमानोंके श्रावणत्व आदि हेतु सपक्षमें नहीं रहते फिर भी अविनाभावके बलसे सच्चे हैं, और अपने साध्योंका प्रामाणिक ज्ञान कराते हैं। ३२०. आप्तके वचनोंसे होनेवाले पदार्थके ज्ञानको आगम कहते हैं। उपचारसे आप्तके वचनोंको भी आगम कहते हैं। क्योंकि उन्होंके द्वारा ही तो ज्ञान उत्पन्न होता है । जो व्यक्ति जिस वस्तका कथन करता है उसे अविसंवादो यथार्थरूपसे जानता हो तथा जिस प्रकार उसे जाना है ठीक उसी प्रकार उसका कथन करता हो उसे आप्त कहते हैं। जैसे माता-पिता या तीर्थंकर आदि । जैसे 'यहां धन गड़ा है' 'मेरु पर्वत है' इत्यादि वाक्योंके अर्थको पिता और तीर्थंकर अच्छी तरह जानते हैं अतः वे उक्त वाक्योंके आप्त हैं। एक बार आप्तताका निश्चय होनेपर उनके द्वारा कहे गये अन्य वाक्य भी आगम प्रमाण हैं। इस तरह परोक्ष प्रमाणका निरूपण हुआ। अतः "अविसंवादी विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है, वह मुख्य और सांव्यवहारिक रूपसे दो प्रकारका है, प्रत्यक्षसे भिन्न समस्त ज्ञान परोक्ष हैं। यह सामान्य रूपसे प्रमाणोंका संग्रह है। जो ज्ञान वस्तुके जिस अंशका जिस रूपसे अविसंवादो ज्ञान कराता है वह उस अंशमें उस रूपसे प्रमाण है तथा जिस अंशमें विसंवादो है उस अंशमें अप्रमाण है। यही व्यवस्था प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकारके ज्ञानोंकी है । ये भी अविसंवादी अंशमें प्रमाण तथा विसंवादी अंशमें प्रमाणाभास हैं।" ३२१. इसलिए एक ही ज्ञान जिस अंशमें अविसंवादी होगा उस अंशमें प्रमाण माना जायेगा तथा जिस अंशमें विसंवादी होगा उस अंशमें अप्रमाण या प्रमाणाभास समझा जायेगा। १. "आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः।"-परीक्षामु. ३२९९ । प्रमाणनय ४४९। २. "उपचारादाप्तवचनं चेति ।"-प्रमाणनय । ३. “समस्त्यत्र प्रदेशे रत्नविधानं सन्ति रत्नसानुप्रभृतय इति ।"-प्रमाणनय ४१३। ४. "यथा मेर्वादयः सन्ति।"-परीक्षाम. ३११०१। ५. "अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानाति यथाज्ञानं चाभिधत्ते स आप्त इति ।"-प्रमाणनय. ४।४।६. "सच द्वधा लोकिको लोकोत्तरश्चेति । लौकिको जनकादिर्लोकोत्तरस्तु तीर्थकरादिरिति ।"-प्रमाणनय, व. ७। ७. तत् भ.२ "तेन मुख्यसंव्यवहारेण..."-सन्मति. टी. पृ. ५९५। ८. "यद्यथैवाविसंवादि प्रमाणं तत्तथा मतम् ।"-लघी. इको. २३ । सिद्धिवि.। तरवार्थश्लो. पू. १७० । अष्टसह. पू. १५३। सन्मति. टी. पृ. ५९५। ९. "तिमिराद्युपप्लवज्ञानं चन्द्रादावविसंवादकं प्रमाणम् यथा तत्संख्यादौ विसंवादकत्वादप्रमाणं प्रमाणेतरव्यवस्थायाः तल्लक्षणत्वात् ।" लघी. स्व. श्लो. २२ । "येनाकारेण तत्त्वपरिच्छेदः तदपेक्षया प्रामाण्यमिति । तेन प्रत्यक्षतदाभासयोरपि प्रायशः संकीर्णप्रामाण्येतरस्थितिरुन्नेतव्या, प्रसिद्धानुपहतेन्द्रियदृष्टेरपि चन्द्रार्कादिषु देशप्रत्यासत्याद्य भूताकारावभासनात्, तथोपहताक्षादेरपि संख्यासंख्यादिविसंवादेऽपि चन्द्रादिस्वभावतत्त्वोपलम्भात् । तत्प्रकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धद्रव्यादिवत् ।"-अष्टश., अष्टसह. प. २७७ । तत्वार्थ श्लो. पृ. १७० । सन्मति. टी. पृ. ५९५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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